बुधवार, 4 नवंबर 2009

एक और जन्म लेना होगा

*

हुआ राम जी का राज,छाए सभी सुख-साज,किन्तु सरयू की लहरों पे उदासी-सी छा गई 

उसाँस सी ले आगे बढ़ जाता ,और कनक-भवन की श्री-शोभा चली गई 

!मुख-सा छिपाए ,एक दूसरे से बचते से, तीनो भइयों के शीश झुके झुके जा रहे ,

सूनीसूनी आँखों जाग,काट देते सारी रात,मन ग्लानि लिए राजाराम राज किए जा रहे !

*
त्रस्त मौन माँडवी, श्रुतकीर्ति बिसूरती सी ,
क्षुब्ध उर्मिला को चैन जीवन में हो कहाँ ,
उठा भावावेग और टूटा धीरज का बाँध ,
व्याकुल हो रानी ने लक्ष्मण से यों कहा -
'चौदह बरस को चले त्याग मुझको तब मै मुख से न बोली ,
भाई न कुण्ठित हों ,अब छोड़ आए हो भाभी को वन मे अकेली !
पहले जलाई थी अग्नि परीक्षा की , तुमको भी लज्जा न आई ?
वचनों के पक्के हैं रघुकुल मे सारे, लेकिन थी सीता पराई !
गुरु, देवता, पुरजनों-परिजनो बीच अगनी की साक्षी शपथ लो ,
फिर जब भी चाहो तो अपनी ही ब्याही से पल भर में पल्ला झटक लो !
ऊपर से उनकी दशा ! तुम पुरुषजन, क्या जानो पीड़ा गरभ की ,
दासी न दाई ,न शैया न छाजन ,भोजन न दीपक न बाती !

कैसे सहेगी किससे कहेगी ना कोई संगी-सहेली !
भाई का नाता निबाहे को, भाभी को छोड़ा विजन मे अकेली ! 


'मेरा हिया फट गया क्यों न रानी ,अब मैं किसे मुँह दिखाऊँ ,
भाभी को मैंने ही छोड़ा वनों में ,पलभर न मैं चैन पाऊँ !
चाकर हूँ, मैं क्या करूँ उर्मिला ,बात भैया की भैया ही जाने ,
क्या बीतती है किसी के हृदय पर इसे कोई जाने न माने !"
*
' जीजी ने तो साथ पूरा निभाया ,वन-वन विपतियाँ सहीं रे ,
राजा हुए और सच को न परखा ,कानों धरी बतकही रे !
जस हो या अपजस ,सुख हो भले दुख ,वन में रहे या भवन में ,
सीता की पत रख सके वो ही ब्याहे, थी आन बाबा के पन में !
राजा की जयकार बोली सभी ने, कल ना पड़े मेरे जी को ,
कैसे कहूँ किस दशा में हैं बहिना सपने में देखा उन्ही को !"
*
' रथ की थकन झेल पाईं न भाभी , मूर्छित हुई क्षीण काया ,
छाया बिरछ की धरा पात में जल, मुँह से न मैं बोल पाया !
चुप-चुप रहीं देखती अनमनी एक निर्लिप्त सी भंगिमा में ,
संबंध सारे परे रह गए और कुछ भी नहीं रह गया मैं !
*
'कह दो लला से मुझे छोड़ आएँ ,बारी तुम्हारी भवन की ,
तुमने दिखाया वही पथ चलूँ अनुसरी बन जिठानी- बहन की !'
*
'भाभी की बहिना का पद है तुम्हारा ,मुझसे बड़ा और भारी ,
मस्तक झुकाए खड़ा हूँ प्रिये ,बात अनुचित नहीं कुछ तुम्हारी !
मुझको क्षमा कर सको तो मुझे भी चाकर बना ले चलो तुम ,
सुख तो सपन हो गए उर्मिले , साथ संताप ही भोग लें हम !'
*****
आगईं याद कल कान पड़ी वे बातें ,
जब लौट रहे थे लक्ष्मण धीरे-धीरे ,
कुछ तीखे स्वर वातायन से आए थे
आक्रोश दुःख से आधे और अधूरे --
'सहधर्मी थे वे स्वयं राम वन जाते ,शान्ता के पास धरोहर ही धर आते ,
यों तो धरती राक्षसहीना कहते अब ,तीनों भाई क्या राज सम्हाल न पाते ?'
*
फिर मझली माँ-' री मरी मन्थरा,चुप रह,कुछ कहने का अधिकार खो दिया हमने ,'
अन्तर की उमड़न हुई कंठगत आकर ,लक्ष्मण ठिठके से खड़े रहे संभ्रम में !
'रावण तो हारा था वैदेही से ही , फिर जीत कहाँ थी उसके लिए भुवन में ,
कुल- पुरुष कुलवधू गर्भ- सहित यों त्यागे..'- कैकेयी के स्वर डूबे से चिन्तन में -- 
'सीता तेजस्वी थी वह जीत गई थी ,कोई निरीह नारी होती , क्या होता ?
रक्षा की जगह लाञ्छना दे यदि पति भी , बैरी समाज फिर उसे न जीने देता !'
*
'तुम बुद्धिमती पड़ती ही गईं अकेली ,' मन्थरा मुखर फिर तीव्र स्वरों में बोली -

'आदर्श लोक को राम दिखाने आए ,मर्यादाओं का पाठ पढ़ाने आए...’
'मंथरा मुझे दुख है कि सभी यों चुप हैं ,कुल की गौरव गाथा कैसे विकसेगी ,
वह नहीं मात्र छायानुवाद है उनका , मैथिली यहाँ अब कभी नहीं लौटेगी !'
****** 
लक्ष्मण की रानी ने चर को पठाया लाओ बहन का सँदेश ,
कोई समाचार आकर सुना दे काटे हिया का कलेश !
*
पत्तों पे लिख दी थी पाती सिया ने, तृण की बना लेखनी ,
आँसू भरे चर ने माथे चढ़ाई मन में व्यथा थी घनी !
' मै जहाँ भी रही कुछ अघट घट गया ,जन्म से ही शुरू हो गई यह कथा ,
जन्म देकर जननि ही जिसे त्याग दे ,उर्मिले , कौन समझेगा उसकी व्यथा ?
सामने क्यों स्वयं राम आए नहीं ,कौन बाधा रही सोच मुझको यही ,
ज़िन्दगी में विषम योग झेले सदा किन्तु दुर्बल मना जानकी कब रही ?
*
' पुत्र मेरे प्रतापी बनेगे तभी ,जब कि उन पर न छाया यहाँ की पड़े ,
घोर मर्याद कुण्ठित न कर दे कहीं ,मुक्त व्यवहार में पुत्र मेरे बढ़ें !
*
' ये गहन वन उगे सिर्फ़ मेरे लिए , आप अपने से पहचान अब हो गई ,
उस हताशा से उबरी .ये ऋषि की कृपा ,मैं स्वयंसिद्ध सी निस्पृहा हो गई !'
***
क्रौंञ्ची की विषम व्यथा से जो विगलित था ,
बन गया सिया की मर्म-कथा का साक्षी ,
जो व्याकुल हो छन्दों मे फूट पड़ा था ,
वह आदिकाव्य था अंतस् की करुणा थी !


स्वर मुखर हो उठे उस दारुण मन्थन में
आविष्ट महाऋषि खड़े होगए वन में -- 
*
'मैं वाल्मीकि,कवि कह लो चाहे दृष्टा ,
आकाश ,धरा सब रहें दिशाएँ साक्षी ,
मैं दोनों दोनों हाथ उठाकर जो कहता हूँ ,
ओ राम सुनो ,सब सुने अयोध्यावासी --
*
' जन कुत्सा-विचलित राम पितृत्व निभा न सके ,
पर सीता का मातृत्व किसी से बाध्य नहीं !
अब अगर राम चाहें भी , नहीं फिरेगी वह !
विश्वास-सत्य होते प्रमाण सापेक्ष नहीं १
*
'अस्मिता जब कि खो बैठे राम स्वयं अपनी ,
बाधित संकल्प नहीं पाते जगती में जय ,
धारक अक्षम पा शक्ति धरा में समा गई,
 तो फिर तो होना ही है क्षय ,बस क्षय ही क्षय !

*

'मानवी-प्रेम का जो उपहास किया तुमने ,
कन्दुक-सा खेले सारी मर्यादा तज कर ,
अब चन्द्र नखा का शाप फलित होना ही है ,
हर त्यक्ता अनुरक्ता नारी को अपना कर !


',राम ,तुम्हें अब प्रायश्चित करना होगा ,
फिर और किसी युग में मानव का तन धरकर ,
कुब्जा हो, रूपमती हो, ब्याही हो चाहे अनब्याही हो,
 हर प्रेम -निवेदन रक्खोगे सिर-आँखों पर !

*
अब सिर्फ़ ग्लानि है क्यों कि हार बैठे तुम ही ,
वह सत्य-नीति की कथा तुम्हारी नहीं रही ,
अविचल वैदेही जीतेगी हर बार यहाँ ,
सुन लो कि राम अब विजय तुम्हारी नहीं रही !
*
' नारी को देगा लाञ्छन और वञ्चना ही

यह देश अभागा, कथा तुम्हारी गा-गा कर ,
जगती मे अपना शीष उठाएगा कैसे ?
निःसत्व जाति क्या जीत सकी है कभी समर ?
*
'अपना व्यक्तित्व माँज कर चमकाना होगा ,
फिर से जीवन के कटु यथार्थ मे घिस-घिस कर ,
एक और जन्म लेना होगा ओ,राम ,तुम्हे ,
जन-जन को पूर्णावतार दिखाने इस भू पर !'
*
रह गए न राम कथा-नायक ,आगे था उत्तर-रामचरित ,
फिर धरती में ही समा गई वह उज्ज्वलता त्रैलोक्य-विश्रुत !

*****






2 टिप्‍पणियां:

  1. पुत्र मेरे प्रतापी बनेगे तभी ,जब कि उन पर न छाया यहाँ की पड़े ,
    घोर मर्याद कुण्ठ्त न कर दे कहीं ,मुक्त व्यवहार मे पुत्र मेरे बढ़ें !

    कुछ नया पढने को मिला...वरना वही आंसू वही व्यथा कथा.......wahi ''स्वामी स्वामी..'' का कोरा गान.....:/:/

    'नारी को देगा लाञ्छन और वञ्चना ही यह देश अभागा कथा तुम्हारी गा-गा कर ,

    :/ हम्म....सत्य वचन !!

    'ये गहन वन उगे सिर्फ़ मेरे लिए , आप अपने से पहचान अब हो गई ,'

    यहाँ इस पंक्ति तक पहुँचते पहुँचते आँखें नम हो आयीं......ये नहीं कहूँगी कि शब्दों ने ह्रदय को भिगोया...वरन ... आपके दूसरे ब्लॉग ''लालित्यम'' से माता सीता का वास्तविक परिचय प्राप्त हो चुका था...सो यहाँ उनका दुःख ज़्यादा अच्छे से पहचाना......कुछ कुछ ख़ुशी भी होने लगी है...सीता माता उतनी भी निरीह नहीं जितना मैं समझती आई हूँ.....:)
    अच्छी बात थी ना प्रतिभा जी..माँ सीता लौटकर वापस नहीं गयीं.....आत्मसम्मान को थामे थामे जीवन व्यतीत किया....एकाकी जीवन जीते हुए बच्चों को भी बड़ा किया.....कहीं भी पिता नाम के जीव का लेशमात्र योगदान नहीं.......:D

    'अपना व्यक्तित्व माँज कर चमकाना होगा ,फिर से जीवन के कटु यथार्थ मे घिस-घिस कर ,
    एक और जन्म लेना होगा ओ,राम ,तुम्हे जन-जन को पूर्णावतार दिखाने इस भू पर !'

    मगर लोग बहुत तेज़ हैं प्रतिभा जी......:)..वे कहेंगे नहीं...रामायण अलग युग में हुई...सो अब चाहे राम भगवान् १० जन्म लें अथवा १००....हमारे लिए वही अनुसरण योग्य है...'पत्नी की अग्निपरीक्षा...''........हम्म ये हो सकता है..कि जन्म लें तो इतना प्रभावशाली vyaktitv हो...कि राम भगवान् को लोग बिसरा देंवें...
    वैसे सारा झंझट ही नर और नारी में मानव के विभाजन का है....श्रीकृष्ण का फंडा सही है....कि वही एक पुरुष हैं और अन्य सारे जीव-जंतु,वनस्पति,मनुष्य...सभी..प्रकृति स्वरूपा नारी हैं......ये बात सर्वमान्य हो जाए तो व्यर्थ की श्रेष्टता सिद्ध करने में या ''बराबरी के अधिकार और व्यवहार'' का प्रश्न ही समाप्त हो जायेगा......

    'मुख - सा छिपाए ,एक दूसरे से बचते से , तीनो भइयों के शीश झुके- झुके जा रहे'

    ...लगता है रामायण फिर से पढ़नी पड़ेगी....कुछ yaad नहीं aata....jab माता सीता को वनवास दिया गया....तब किसी ने भगवान् राम को रोका था या नहीं...किसी ने तो विरोध किया ही होगा...:(

    'जीजी ने तो साथ पूरा निभाया ,वन-वन विपतियाँ सहीं रे ,
    राजा हुए और सच को न परखा ,कानो धरी बतकही रे !'

    ..:/ जाने कौन मर्यादा बचायी थी यहाँ भगवान् राम जी ने......फिजूल का एक दृष्टांत बना दिया....तभी आजकल log '3rd person' या 'ज़माने' या तथाकथित 'समाज' की सबसे ज़्यादा परवाह करते हैं.....

    'अब सिर्फ़ ग्लानि है क्यों कि हार बैठे तुम ही ,वह सत्य-नीति की कथा तुम्हारी नहीं रही ,
    अविचल वैदेही जीतेगी हर बार यहाँ ,सुन लो कि राम अब विजय तुम्हारी नहीं रही !'

    बहुत ठोस पंक्तियाँ हैं....मगर शायद साहित्य में ही स्वीकारीं जाएँगी.....आम जनजीवन में वैसे ही पुरुष प्रधान समाज है भारत का.....जाने कितनी सीताएं अपने कर्त्तव्य और धर्म को निष्ठा से निभाती हैं....मगर यदा कदा अग्निपरीक्षाओं से भी गुज़रती रहतीं हैं....:/:/

    कितने ही पुरुष यहाँ आकर आपकी कविता के लिए वाह वाह लिख जायेंगे....मगर अपने घर की सीता से इसी तरह ही पेश आयेंगे.....x-( x-( x-( ......कहीं पढ़ा था एक दफा...माँ दुर्गा के कितने भक्त जो आरती में गा गाकर अभिभूत होते हैं ''..शुंभ निशुंभ विडारे महिषासुर घाती...''...मगर आम ज़िंदगी में असुर की ही तरह पेश आते हैं घर की स्त्री के साथ....और अपेक्षा ...अपेक्षा क्या धर्म समझते हैं....कि पत्नी चुपचाप सहती रहे..और पति धर्म भी निभाती रहे...फिर चाहे मैं उसे वनवास दूं...या ऐसा कुछ भी करूं जो ''अन्याय'' हो....:/:/

    badhayi sarthak lekhan k liye...naya sambal nayi oorja detin hain aisi rachnayein...........:)

    जवाब देंहटाएं
  2. ''.तब किसी ने भगवान् राम को रोका था या नहीं...किसी ने तो विरोध किया ही होगा.''

    यहाँ विरोध से मेरा तात्पर्य शक्तिशाली तार्किक स्वर से था..न कि रोना गिडगिडाना और एक आदर्श पति का वास्ता देने से.......सुबह ये लिखकर पोस्ट किया मगर कुछ तकनीकी खराबी हो गयी होगी शायद.............

    जवाब देंहटाएं