शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

बार-बार आऊँगा

वाचक -
आह, रक्त की प्यास न जाने ,जाग जाग उठती क्यों ,
जाने क्यों, शैतान उतर कर बार- बार आता है.
फिर प्राणों के प्यासे बन जाते हैं भाई-भाई ,
उसी लाल लोहू से फिर इतिहास लिखा जाता है.

मौत नाचती उतर धरा पर ,दिशा-दिशा थर्राती ,
और गगन से उतरी आती महाअग्नि की होली ,
बाल खोल ,सिन्दूर पोंछ कर आर्तनाद कर उठती ,
दुल्हन, जो चढ़ कर आई थी, अभी पिया की डोली
राजनीति क्या जनता की कीमत पर ही चलती है ,
दुनिया की ताकत क्या केवल लोहू से चलती है ?
*
वाचिका -
मानव के मन कोई शैतान छिपा बैठा है ,
मौका पाते ही जो अपना दाँव दिखा जाता है ,
सींगों से वह निर्माणों को तहस-नहस कर देता ,
कठिन खुरों से सभी सभ्यता रौंद-रौंद देता है ,
बे-लगाम हो दुनिया भर में कूद-फांद कर भारी ,
जीवन के सारे मूल्यों को उलट-पलट देता है .
मानव का चोला उतार कर नग्न-नृत्य कर उठता,
 न्याय और तर्कों की सुदृढ़ लगाम तोड़ देता है .
*
वाचक -
लज्जा और विचारों की प्राचीरें ढह जाती हैं ,
लिप्सा औ'बर्रबरता सतहों तक उभरी आती हैं!
(भागते हुए केश खोले एक नारी का प्रवेश )
नारी -
 ऐसा क्यों होता है ?(तीखे स्वर में )क्यों ?
मैं धरती पूछ रही हूँ !
मेरी छाती पर यह दानव लीला क्यों की जाती
मेरे तन को कौन तोड़ता ,कोई तो उत्तर दो ,
रात-रात भर पागल सी पीड़ाएं रह-रह रोतीं ?
(धम-धम करते विज्ञान का आगमन (
विज्ञान -
धरती ,अब चुप रहो ,शक्तिशाली मैं ही हूँ केवल ,
और सभी को इस चुटकी में मसल उड़ा दूँगा मैं
जल में थल में और गगन में ,अनुशासन मेरा ही ,
सूरज-चाँद-सितारों पर भी कदम बढ़ा दूंगा मैं !
(कुछ देर निस्तब्धता )
वाचक -
युद्धों का अह्वान ,बमों का भीषण-भीषण नर्तन ,
और मनुष्य तुच्छ कीटों सा मसल दिया जाता है ,
बड़े दानवी अस्त्र उतर आते हैं आग उगलते ,
और चतुर्दिक् महाध्वंस गिद्धों सा मँडराता है !
*
वाचिका-
ग्राम-नगर वन पर्वत सब पर धुआँ मृत्यु का छाता ,
कितने ईसा बुद्ध,गांधी अनजन्मे मर जाते ,
लुंज-पुंज सी मानवता पशुओं-सा जीवन जीती !
संस्कृतियों के चिह्न नाश तक जा कर ही थम पाते !
*
धरती -तेज़ आवाज़ में -इसका जिम्मेदार कौन है ,
इसका कारण क्या है ?
सर्वनाश की आग कहाँ से कहां तलक फैली है?
विज्ञान -
अब आगे मत बोल धरा ,
सब स्वाहा हो जाएगा ,
फेंक चुनरिया हरियाली
धर,  मिट्टी जो मैली है .
(पृष्ठभूमि से डपटती हुई गहरी आवाज़- )
खबरदार !खबरदार मुँह पर लगाम दो ,
अरे अधम, मत बोलो .
अब आगे अपने दूषित मंतव्यों को मत खोलो 1
नया मनुज जन्मेगा ,मैले माटी के आँचल में ,
कमल खिलेंगे बार-बार कालों के सरिता जल में
जो अनुगामी रहे सुचिन्ता का ,शुभशंसाओं का ,
क्योंकि दिव्यता का संदेसा पहले माटी  पाती !

विज्ञान -
 मैं हूँ .मैं क्या नहीं जानते ,परम शक्तिशाली मैं !
नाच रहे मेरे इंगित पर समय पहरुए हारे ,
धरती, तू हर बार बुद्ध सा कोई जन्मा देती ,
सभी चौंक से जाते अब ये काम बंद कर सारे !
*
धरती -
 और सृजन से कह दूं वह रुक जाए?
कभी निराश नहीं होतीं पर मेरी ये प्रक्रियाएँ
तू समझा ,बस तुझ तक आकर ये विकास बस होगा .,
मानव का मानस आत्मा का नाम न रह पाएगा?
तू ,नत होगा अंतर्तम के फूल खिलें विकसेंगे !
 तू हत होगा एक दिवस ,ये रुके कदम चल देंगे!
*
विज्ञान -
 बस ,ख़ामोश,और आगे मत बोल ,कि मैं न रहूँगा .
मैं मानव की अमर प्यास में विद्यमान रहता हूँ
तू ऐसा मत सोच कि मेरा अंत कभी आएगा ,
मैं भौतिकता के तट अंतः सलिला सा बहता हूँ !
मेरा अंत न होगा बुद्धि मुझे संरक्षण देगी ,
धरा ,समझ तू ,मेरी सत्ता कभी नही बिखरेगी !
*
पृष्ठ-स्वर -
झूठ,मौत सबको आती है ,चाहे जितना जी ले ,
और प्यास भी एक दिवस सब ही की मिटजाती है .
*
विज्ञान-
 नहीं अमर हूँ मैं ,
मैंने वरदान यही पाया है .
धरती ,तू है जब तक,  मेरी मौत नहींआएगी !
*
(कुछ देर चुप्पी फिर पृष्ठभूमि से घंटों के स्वर ,शंखनाद )
धरती -
फिर कोई जन्मा है ,कोई फिर तन धर आया है .
कोई फिर से वह सँदेश ले जीवन वर आया है .
हो जाओ तैयार ,उसी के हाथों हार तुम्हारी ,
कोई फिर आया धरती पर ले अपने मंगल स्वर !
और उसी आभा से मिटनेवाला है अँधियारा !
*
विज्ञान-
 नाम बताओ,
अरे नाम बतला दे मुझे धरित्री ,
हत करदूँगा उसे स्वयं इन शक्तिमान हाथों से ,
बतला दे किसका शिशु ,उसका अता-पता बतला दे .
या फिर कोई शिशु न बचेगा ,मेरे आघातों से ,
निपट प्रथम ही लूँगा उससे अपने इन हाथों से .
*
धरती -
कोई नाम नहीं होता ,जब मनुज जन्म लेता है .
पता नहीं क्या नाम धरेगा उसका यह संसार .
हर शिशु है संदेश ,विधाता भेज रहा है अविरल
कोई भाषा नहीं समझता सिर्फ समझता प्यार 1
द्वेष और रागों से ऊपर परमहंस सा आता,
वह निरीह सा प्राणी जो मानव की ही संतान .
उसे मार तुम नहीं सकोगे ,हाथ काँप जाएँगे ,
मोह-मुग्ध तुम ले न सकोगे वह नन्हीं सी जान .
*
(विज्ञान सिर पर हाथ मारता है )
विज्ञान -जन्म-मृत्यु का क्रम है ,
फिर-फिर  जन्म यहाँ होता है .
मर-मर कर मानव जी जाता ,करने वह संधान .
दुर्बलता के चोर सदा ही छिपे घुसे हैं मन में ,
बार-बार उभरेगा सिर को उठा-उठा शैतान .

स्वार्थ नेत्र की दृष्टि छीनने को तत्पर बैठा है ,
अविचारों की क्रीड़ाएँ कब रुकीं किसी के रोके ,
मनुज, तुम्हारी तृष्णा तुमको चुप न बैठने देगी ,
और तुम्हारी मोहबुद्धि ही तुमको भटकाएगी .
उन्नति-सुख  के स्वप्न तुम्हारे तुम्हें निगल जाएंगे ,
ये धरती चुपचाप शून्यमें तिरती रह जाएगी !
(थोड़ी देर चुप्पी )
एक बालिका गाते हुए प्रवेश करती है-
 गीत-
धूप और छाया है शीतल ,जल औ'अन्न लिए ये भू-तल .
उर्वर माटी जीवन देती पवन सांस देता है अविरल !
दिन हैं और रात है ,सूरज-चांद धरा के अपने ,
कितना सुन्दर जीवन रे ,
कैसे भविष्य के सपने !
*
(लाठी टेकती खाँसती एक वृद्धा का प्रवेश-)
धरती औ'धन,जिनका बँटवा राहै सदा अधूरा .
जीवन का आनन्द किसी ने समझ न पाया पूरा !


बालिका -
 कितने हैं संबंध,परस्पर आकर्षण में बाँधे ,
*
वृद्धा -
किन्तु विसंगति उनको देती कहाँ चैन से जीने .
सत्ता का मद सदा बुद्धि को  कुंठित कर धर देता ,
*
बालिका -
कोई भी उपाय या मारग इसका नहीं बचा क्या ?
*
(पृष्ठभूमि से स्वर उभरते हैं )-
जब अतिचार बढ़ेगा , दानव जग अधिकार करेगा ,
अंध-रूढ़ि का धूम दिशाओं को काला कर देगा ,
धरती की माटी का कण-कण आकुल हो उमड़ेगा ,
मानवता का धर्म न, हो केवल पाखंड बढ़ेगा ,
मैं आऊँगा ,मैं निरीह शिशु तन ले कर फिर जन्मूँगा ,

मैं जो कृष्ण,बुद्ध था ,ईसा था नानक  का संदेशा
मैं केवल मनुजत्व ,कि जिसने जीवन संगर जीता
भाव- बोध संतुलन धरे मैं बार-बार आऊँगा
इस धरती तल पर अंकित कर जाने युग की गीता!
(मंच के एक ओर से युवकों दूसरी ओर से युवतियों का प्रवेश -)
गान एवं नृत्य -
धरा का पुत्र मंगल गीत गाता है ,
धरा की पुत्रियाँ कुंकुम लुटाती हैं ,
नया युग आ गया, नया युग आ गया .
*
विहंगम शान्ति का अब पंख फैला कर उतरता है ,
दिशाओं की अरुणिमा मुस्कराई है ,
कि आँखें खोल कर पूरब दिशा देखो ,
जहाँ पर नव-किरण सुप्रभात लाई है .
नया युग आ गया, नया युग आ गया .
*
सुचिन्ता -सत्य का चंदन लगा माथे ,
कि समता और ममता के नयन खोले ,
चरण में दीप बाले त्याग का उज्ज्वल,
नया युग आ गया, नया युग आ गया .
*
हँसेगी अब धरा आकाश झूमेगा ,
सुनहरी बाल नाचे खलखिलाएगी ,
कि फिर से जन्मता संदेश जीवन का
दुखों से दग्ध धरती शान्ति पाएगी !
नया युग आ गया, नया युग आ गया .
*

गुरुवार, 29 जुलाई 2010

शंभु की बारात

*
लो ,चली ये शंभु की बारात !

आज गौरी वरेंगी जगदीश्वर को
चल दिये है ब्याहने अद्भुत बराती साथ .
चढ़े बसहा चढे शंकर ,लिए डमरू हाथ ,
बाँध गजपट,भाँग की झोली समेटे काँख,
साथ चल दी ,विकट अद्भुत महाकार जमात!
बढ़ चली लो शंभु की बारात.
*
सब विरूपित ,विकृत सब आधे अधूरे ,
चल दिए पाकर कृपा का हाथ ,
अंध, कोढ़ी, विकल-अंग, विवस्त्र, विचलित वेश,
कुछ निरे कंकाल कुछ अपरूप,
विकृत और विचित्र-  देही विविध रूप अशेष
अंग-हत कंकाल ज्यों हों भूत -प्रेत-पिशाच !
नाचते आनंद स्वर भर  गान परम विचित्र,
बन बराती चल दिएसब संग .
*
चले सभी, कि आज हो आतिथ्य पशुपति साथ
आज तो वंदन मिलेगा और चंदन भाल.
मान -पान समेत स्वागत भोग, सुरभित माल,
रूप-रँग-गुण हीन ,वस्त्र-विहीन ,सज्जा-हीन ,
तृप्ति पा लेंगे सभी पा अन्न और अनन्य!
*
वंचितों को शरण में ले हँसे शंभु प्रसन्न.
पूछता कोई न जिनको ,सब जगत भयभीत
त्यक्त हैं अभिशप्त ज्यों, कैसी जगत की रीत!
चिर-उपेक्षित शंभु से जुड़ पा गए सम्मान ,
चल दिए स्वीकार करने शंभु कन्यादान
*
देख पशुपति की विचित्र बरात.
देव-किन्नर यक्ष दनुसुत नाग सब चुपचाप
भ्रमित ,विस्मित किस तरह हों बन बराती साथ .
सोच में हैं यह कि भोले को चढ़ी है भंग,
हरि ,विरंचि , मनुज सभी तो रह गए हैं दंग!
*
जानते शिवशंभु सबका सोच.
कौन है संपूर्ण ,पशु-तन तो सभी के साथ.
कौन है परिपूर्ण सबके ही विकारी अंग?
मौन विधि,नत-शीश हैं देवेन्द्र,
और इनकी व्याधियाँ- बाधा हरेगा कौन ,
चेतना का यह विकृत परिवेश ,
दोष किसका ,यह बताए कौन ?
*
तुम सभी पावन परम ,ले दिव्य ,सुन्दर रूप ,
देह धर आए यहाँ आनन्द के ही काज,
शक्तियों-सह चल, करो सब साज स्वागत हेतु.
रहो हिमगिरि के भवन धर कर घराती रूप ,
मैं कि पशुपति करूँगा स्वीकार ये पशु-रूप .

सृष्टि का विष कंठ, सभी विकार धर कर शीष,
ये उपेक्षित त्यक्त, मेरे स्वजन बन हों संग,
शिव बिना अपना सकेगा कौन ?
स्वयं भिक्षुक बना याचक मंडली ले साथ
आ रहा हूँ माँगने लोकेश्वरी का हाथ!
रहे वंचित,निरादृत अब तृप्त हों वे जीव ,
स्वस्थ सहज प्रसन्न मन की मिले हमें असीस .
*
डमरु की अनुगूँज,जाते झूम ,
विसंगतियों में ढले वे दीन-दरिद अनाथ,
नृत्य करते ,तान भरते विकट धर विन्यास!
हुए कुंठाहीन . आत्म भर आनन्द-लीन विभोर-
आज सिर पर परम शिव का हाथ.
चल पड़ी लो शंभु की बारात !
*

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

नीलम घाटी की पुकार

(विश्वविद्यालयीन प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त)
*
[सृष्टि के वरदान सी हरी-भरी धरती ,जिसके स्नेह भरे आँचल में चेतना का अजस्र प्रवाह शत-शत रूपों में विकास पाता है .जिसकी चरम परिणति है मनुष्य-भावना ,बुद्धि और कर्म का अनूठा समंजन.
लेकिन कैसी विडंबना है आदमी को भी मयस्सर नहीं इँसाँ होना !
अहंकार में मत्त भस्मासुर सा वह घात लगाए बैठा है जिस पर दाँव चले जला कर राख कर सदे .उसके सर्वनाशी नृत्य का पहला आघात झेला अमिताभ बुद्ध की करुणा से सिंचित जापान की धरती ने .हिरोशिमा और नागासाकी पर वीभत्स मृत्यु-वर्षा की स्म़ति आज भी दिल दहला देती है .
उसी भाव-भूमि पर आधारित,मानव निर्मित त्रासदी को झेलनेवाले ,शान्ति के दूत के रूप में जाने जाते कपोत- परिवार की कथा है यह .
घटनाक्रम यों है -
देवदारु से ढँके पर्वतों के बीच एक फूलोंवाली घाटी थी ,गगन में उड़ता श्वेत कपोतों का एक,जोड़ाअपनी प्यास बुझाने वहाँ उतरा और घाटी की रमणीयता पर मुग्ध हो वहाँ अपना नीड़ बना लिया .उनका छोटा-सा संसार शिशुओं की किलकारी से गूंज उठा .
तभी एक दिन आकाश में विचरती कपोती को लगा घाटी का वातावरम भयावह हो उठा है .घबराई सी वह अकेली ही लौट पड़ी .नीड़ का कहीं नामोनिशान नहीं था. रोती-बिलखती वह अपने शिशुओँ को ढूँढती रही- टेरती रही .
आकाश से मौत फिर उतरी .बमों की वर्षा का एक और दौर-भयानक ,वीभत्स और सर्वग्रासी !निरीह कपोती चक्कर खाती हुई अपने लुँज-पुँज शिशुओं पर जा गिरी .एकाकी रह गया मरणान्तक यंत्रणा झेलता वह अभिशप्त कपोत!
वह आज भी आकाशों के चक्कर काटता फिर रहा है ,टेर रहा है -जागो,चेत जाओ.यही कहीं तुम्हारे साथ भी न हो !
इसी का निरूपण है यह नृत्य-नाटिका 'नीलम घाटी की पुकार' - ]
*
लाख भुलाऊँ नहीं भूलती मित्रों, एक कहानी ,
मन को थोड़ा हलका कर लूँ कह कर उसे ज़ुबानी .
पहले मेरे साथ ज़रा-सा दूर इधर आ जाओ,
नेह भरा वसुधा का आँचल कुछ पल यहाँ बिताओ .
*
देवदारु वाला वह पर्वत ,नीचे फैली घाटी ,
हरे-भरे ये वृक्ष लताएँ ,उर्वर-उर्वर माटी .
वह देखो पर्वत से झरता छल-छल करता झरना ,
कलकल छलछल कोमल-कोमल चंचल शिशु सा झरना .
धरती माँ का उमग-उमर शिशु को बाहों में भरना .
वनपाँखी का कलरव गूँजे ,कुह-कुह ट्वीटी क्रींक्रीं,
गाए रम्य वनाली फूली, झुक-झुक जाए डाली .
मुक्त गगन में श्वेत कपोतों का दल पंख पसारे ,
पूरव से पश्चिम तक उड़ता प्रतिदिन साँझ-सकारे!
*
एक पँखेरू ने धरती की ओर दृष्टि जब मोड़ी,
रम्य धरा पर उतर पड़ी तब वह कपोत की जोड़ी .
जल पीकर संतुष्ट और यौवन के मद में माती ,
नीलमवाली घाटी में वह घूमी पंख फुलाती .
कपोती ने कपोत से कहा -
यह रमणीय वनाली .
ऊँचा-ऊँचा पर्वत फैला ,घाटी फूलोंवाली .
*
सखे,इस बरस यहीं नीड़ रच अपना ,
साकार करें हम मधुर प्रेम का सपना !
प्रेमी कपोत क्यों बात प्रिया की टाले
सुख में विभोर वे चोंच चोंच में डाले .
झरने से थोड़ा हट कर नीड़ बनाया ,
कोमल काँसों रेशों से सुखद बनाया .
दिन-दिन भर दोनों घाटी पर पर्वत पर ,वृक्षों पर नभ में उड़ते फिरते जी भर .
चक्कर खाते झुक- झूम प्यार बरसाते ,फिर पंख पसारे उमग-उमग हरषाते .
संध्या होती तो लौट नीड़ में दोनों
मीठे सपनों से भरी नींद सो जाते !

(फिर घोंसले में कपोत शिशुओं की किलकारी गूँजी )
बारी-बारी से दोनों दाना लाते ,
अमरित सा पानी लाकर प्यास बुझाते ,
पंखों से अपने शिशुओँ को छा लेते
गूँ-गुटुर-गुटुरगूँ लोरी भी गा लेते .
फिर बच्चे बाहर आ बैठे शाखों पर
नर खिला रहा था उनको फुदक-फुदक कर .
हलकी उड़ान भर लौट नीड़ में आते ,दिन बीत रहे थे यों ही हँसते-गाते .
अब फिर से वे आकाश थाहते फिरते ,
लौटते नीड़ में मंद पवन में तिरते .
**
फिर एक दिन क्या हुआ-
उस दिन दोनों पर्वत के पार गए थे ,
आपस में होड़ लगा कर उड़ते-उड़ते ,
कैसा तो होने लगा कपोती का मन ,
वह लौट पड़ी थी आगे बढ़ते-बढ़ते .
*
कुछ लगी भयावह भायँ-भायँ सी घाटी ,
तो धक्क रह गई स्नेहिल माँ ती छाती .
*
कुछ लगा कि जैसे रात हो गई दिन में
फिर मौत सरीखी शान्ति छा गई वन में .
आ गई नीड़ के पास पुकार लगायी ,
उसको अपने प्रियतम की सुधि भी आई .
वह डाल-डाल पर घबराई सी डोली ,
पत्तों-शाखों में खोज रही थी भोली.
दम घुटता-सा था और,दृष्टि धुँधलाई,
पगलाई सी वह कुछ भी समझ न पाई .
सुध-बुध बिसार वह पागल सी चीखी थी,
मेरे बच्चे देते क्यों नहीं दिखाई ?

तुम कहाँ छि पगए ,मेरे प्यारे बच्चों ?
ओ,प्राणों के आधार दुलारे बच्चों !
दम फूल उठा लड़खड़ा गई इतने में ,
फिर करने लगी पुकार आर्त से स्वर में -
ओ,मेरे बच्चों कहाँ गए हो? आओ,
सुकुमार पंख हैं अभी दूर मत जाओ .
ओ,लाल कहाँ हो कुछ तो मुख से बोलो ,
कोई तो मुझे बताओ, रे मुँह खोलो .
*
चोंचें बाये वे लुंज-पुंज से हो कर ,थे पंख-रहित से पिंड पड़े धरती पर ..
मेरे छोनो.ऐसे क्यों वहाँ पड़े हो?सब ओर निहारो ,जल्दी उठो खड़े हो .'
*
हरियाली पीली पड़ कर मुरझाई थी,
विषगंध दिशा में, काली परछाईं थी.
सब जीव-जगत ज्यों पड़ा हुआ ठंडा हो ,
स्तब्ध हवा पर्वत जैसे नंगा हो ..
*
फिर भीषण रव भर फटा आग का गोला ,
औ'धुआँ-धुआँ सब ओर चटकता शोला .
*
ज्यों दिग्दिगंत तक तपती राख भरी हो
ज्यों सृष्टि समूची सहमी हो सिहरी हो !
पर जले, फफोले सा तन भान गँवाया
रुँध गई साँस ,चकरी सी डोली काया .
आ गिरी कपोती मृत शिशुओं के ऊपर ,
घाटी पर्वत नभ धूसर धूसर धूसर.
*
दूषित नभ ,पानी ज़हर कि माटी बंजर .
ऋतुओं का चक्र घूमता रहता फिर भी
सदियाँ बीतीं तिनका न उगा उस भू पर !
*
(एक गहरी साँस कुछ क्षण चुप्पी )
लौट चलो रे बंधु कि अब यह सहन नहीं होता है ,
वर्तमान में आकर भी मन सिसक-सिसक रोता है .
मिला कौन सुख उनके प्रेम नीड़ में आग लगा कर ?
चैन मिला क्या उस नन्दन-वन को श्मशान बना कर ?
*
वह कपोत खोजता नीड़ अब भी उड़ रहा गगन में ,
शान्ति-शान्ति की टेर लगाता वन में, जन में, मन में .
*
-प्रतिभा सक्सेना.

रविवार, 28 मार्च 2010

रति-विलाप

*
 (पृष्ठभूमि - दुर्दान्त तारकासुर के अत्याचारों से जब  इन्द्रादि देव पराभूत हो गये त्रैलोक्य में त्राहि-त्राहि मच गई  . दैत्य का  वध जिन के औरस पुत्र द्वारा  संभव था, वे शिव  प्रिया  के दक्ष-यज्ञ में देह-त्याग के पश्चात् विरक्ति से भर निर्विकल्प समाधि ले बैठे थे.इस विषमकाल में आशा की एक ही किरण शेष थी -सती ,हिमाचल -गृह में जन्म लेकर ,पति के रूप में शिव की प्राप्ति हेतु,घोर तप कर रहीं थीं.

देवताओं .ने योजना बनाई  कि किसी प्रकार शिव की समाधि भंग हो,मन में कामना जागे और वे देवी पार्वती का पाणिग्रहण करें.

कार्य सिद्धि के लिये कामदेव को यह दायित्व सौंपा गया.अपने कार्य में तत्पर हो  कामदेव ने माया रच कर पुष्प-बाणों का संधान कर उनके चित्त को उद्वेलित किया तपोलीन शिव की समाधि भंग  हो गई . मन में विक्षोभ जाग उठा)

अब आगे-
*
हो गए उन्मन अचानक शंभु
हुई समाधि खंडित .
कुछ नए आभास -
अंतर्मुखी मन का चेत जागा.

खुल गये अरुणाभ लोचन
देखते अति चकित-विस्मित -
अपरिचित दृष्यावली अंकित,
कि मोहक कुहक माया .
तरु-लताय़ें बद्ध गूढ़ालिंगनों में ,
पुष्प बिखराते ,पराग विकीर्ण करते ,
गंध अद्भुत भर, पवन मदहोश करता.
राग-मय ,संगीत लहरें घुल रहीं वातावरण में,
रंग अद्भुत ले दिशाएँ रूप धरतीं .
सुशीतल हिमच्छादित पर्वतों पर
नव- वसंत-विहार छाया .
रूप के सौंदर्य के मधुमय निमंत्रण ,नृत्य के पदचाप
चारों ओर मुक्त विलास .
*
मोह से आविष्ट उर ,
ज्यों प्यास जग जाए पुरानी ,
कामना सोई हुई ,अँगड़ाइयाँ ले उठ रहीं ,
दोहरा रही ज्यों सृष्टि की आदिम कहानी .
हो गये विक्षुब्ध ,विचलित .
धार संयम चित्त पर
अवधान धर, फिर देखते चहुँ ओर शंकर.
इस तपोथल में सभी बदला अचानक ,
प्रेरणा किसकी, कि व्यतिक्रम हुआ संभव ?
*
आम्र-कुँजों में छिपा उस ओर -
प्रथम शर से हृदय विचलित शंभु का कर ,
काम-धनु पर मंजरित -अशोक साधे
पल्लवों के बीच वह कंदर्प निज आसन जमाये .
साथ ही चिर-यौवना रति.
स्वर्ण-अरुण कपोल पति के सुगढ़ काँधे से सटाये ,
शेष तीनों पुष्प- शर कर में (नव मल्लिका ,उत्पल कमल-रक्तिम) डुलाती,
लोल लीला भाव, अधरों पर बिखेरे हास,
हो रहे उद्यत कि मादन-शर चढ़ा, तैयार !
क्रुद्ध शंकर ,
हो रहे अवरुद्ध मुख के बोल ,
देख अब परिणाम ,

भंग कर डाली अखंड समाधि ,आरोपित करेगा व्याधि ?
हाथ में ले मंजरित शर-चाप ,
बन गया तू व्याध ?
अब न ही तू, न ये मदिर विलास ,
सदा को मिट जाय यह संताप !
*
भाल पर कुंचन
दहकता- सा खुला पावक नयन!
नील-लोहित तरंगित विद्युत निकल तत्क्षण तड़कती
कौंधती-सी कुंज पर टूटी अचानक ,
ढह गया कंदर्प!,
छि़टकी जा गिरी रति सुधि- हता पल्लव-चयों पर.
एक पल दारुण दहन का-
हरित तृण-वीरुध अँगारे लपट लिपटे,
गंध वासन्ती, कसैला धूम.
माँस- मज्जा जलन की तीखी चिराँयध .
काम की त्रैलोक्य मोहन देह
रह गई बस एक मुट्ठी भस्म .
आवरण छाया धुएँ का राग-रंग विहीन ,
गगन फीका ,दिशाएँ स्तब्ध ,
आह, रस मय हास- विलास विलीन !
*
सुन्दरी ,नव-यौवना ,सुकुमार
धूलि-धूसर ,मूर्छिता रति पड़ी भू-लुंठित ,
बिरछ से छिन्न लतिका सी हता .
सुधि न वस्त्रों की विभूषण खुले जाते.
चेतती किंचित कि दारुण रुदन,
करुण प्रलाप भर-भऱ !
भर रही सारी दिशाएँ,
घोर हा-हा कार स्वर उठ.
गूँजता भर घाटियाँ , गिरि शिखर तक जा सिर पटकता ,
स्तब्ध पवन ,गगन जड़ित , गल रहे हिम-खंड अपने आप .
किस तरह संयत स्वयं हों ,
धरें शंभु समाधि !
*
कोप सारा, बन गया संताप !
हो रहा विचलित हृदय अनुतप्त ,
सुन रहे चुपचाप -
शंभु ,क्यों दंडित हुआ मम प्राण -सहचर ,
सभी देवों की रही अभिसंधि,
और वह निस्वार्थ सहज स्वभाव .
सृष्टि हित संकट लिया सिर धार!
तुष्ट हो शिव ,शव बना दो सृष्टि को,
हो कर अकेले चिर जियो .
निर्बाध तारक की सफल हो घात
व्यर्थ कर डालो सभी सुप्रयास !
*
गूँजता है पवन ,वही प्रलाप रति का -
विषम ज्वाला में जली थी सती तब ,
तुम दहे थे दारुण विरह के ताप ,
ओ,विरागी
अब न होगा याद !
*
उधर तपती अपर्णा अनजान ,
इधर दारुण-वेदना का वेग धारे
अन्तहीन विलाप .
छा रहा सब ओर क्षिति अंबर दिशाओं में
वही विगलित रुदन स्वर .
मूढ विधि ,अब बढ़ेगा किस भाँति आगे
यहाँ का क्रम ?
सृष्टि के सबसे मधुर संबंध का प्रेरक सुवाहक ,
अन्यतम, अपरूप ,वह
अनुरूप , शोभन युग्म खंडित .
वृत्तियां सारी सहज, कुंठित हुईं,
उस ओर व्रत धारे कठिन संकल्प,निष्ठा !
क्या पता परिणाम ?
*
अब न कोई कामना मन में जगेगी.
अब न कोई वासना व्यकुल करेगी ,
लालसा पूरित तृषाकुल नयन अब
दो स्वर्ण - कलशों की न रस परिमाप लेंगे .
अब नहीं आवेग उफनाता हुआ ,उत्तेजना बन
पुरुष के पुरुषत्व का वाहक बनेगा .
कभी साँसें नहीं सुलगेंगी ,
न, आकुल चुंबनो-आलिंगनो में उमड़ती दहकन रहेगी .
नारियाँ निस्सत्व सी ,निर्वीर्य से नर
ऊष्मा-आवेश बिन किस बीज को रोपें-गहेंगे?
उस नयन की आग ने सब फूँक डाला
सृष्टि का क्रम भंग हो रह जायगा
निष्काम भ्रमती धरा लेती विफल चक्कर.
*
देखते विभ्रमित शंकर -
प्रकृति में मधु -मास के कोपल न फूटे,
सज न पाये डालियों पर आग के अंकुर अनूठे ,
आम्र-कुंजों में पुलकती स्वर्ण-मंजरियाँ न छाईँ ,
जो कि नर-कोकिल स्वरों में कूक भर दे .
चर-अचर सब राग से, रस से अछूते .
*
कल्पना कमनीय कैसे काम बिन हो
और रति ही जब विरत हो किस तरह
रमणीयता इस सृष्टि में विहरण करे
कैसे जगे अनुरक्ति मन में ?
*
कर गया लालित्य कविता से पलायन
रागिनी बन, राग बन,
वेदना से विकल कविता फूटने पाती न
 नवरस धार.
विरह तापों से निखर कर महकती
अनुरक्ति मन की,
 शब्द में ढलती नहीं.
केवल सतोगुण? चलेगा संसार कैसे .
तीसरा पुरुषार्थ बन जाए अशोभन,
सहज जैविक वृत्तियाँ हत और कुंठित ,
सृष्टि की धारा कहाँ का पथ गहेगी ?
*
इधर रति का ,हृदय-तल को बेधता स्वर
गूँजते वे शब्द -
रति-से ,सुरति से आकर्षणों से,
प्रेम से औ'काम के पुरुषार्थ से
 रह कर अपरिचित ,
रहो डूबे स्वयं में,
अपर्णा तप तिरस्कृत कर.
उमा का जन्म निष्फल कर ,
*
स्तब्ध औ' हतबुद्ध शंकर!
सोच में डूबे हुए से कह उठे
रति न रो, हो शान्त .
बोल ,तेरा प्रिय करूँ क्या ?
धैर्य धर ,हो कर विगत-संताप !
*
भस्म कर दो मुझे भी ,
दारुण व्यथा का अन्त कर दो !
काम-रति अब सदा को मिट जायँ.
गाथा प्रेम की
अनुरक्तियाँ-आसक्तियाँ ,ये भक्ति , प्रीति-प्रतीतियों के राग
जीवन में न आयें.
देह रति की भस्म कर ,
चिन्ता रहित धूनी रमाओ
निर्विकल्प समाधि में जा डूब जाओ !
*
गूँज भरता रव कि रति उन्मत्त स्वर से
बार-बार महेश को धिक्कारती -सी,
 लौट जाओ .
उमा का तप करो निष्फल ,
तारकासुर नष्ट-भ्रष्ट करे त्रिपुर ,
ओ नाश- कर्ता ,काम संग रति दाह कर दो!
जा मगन बैठो कहीं हिमगिरि शिखर पर !
तीसरे पुरुषार्थ से रह जाय वंचित सृष्टि
जीवन-राग बाधित.
शंभु तुम निश्चिंत अपनी साधना में लौट जाओ !


स्तब्ध शिव, फिर -
शान्त हो रति ,लौट जा, जा प्रतीक्षा कर
काम नव-तन धार तुझसे आ मिलेगा.
आज मेरी वृत्ति का शोधन किया
रति- प्रीति का तूने यहाँ मंडन किया है!
जगा दी निष्काम मन में फिर उसी की याद तू ने,
सती का अनुताप आ व्यापा अपर्णा की तपन में
देख तेरा दुख-दहन ,तेरा समर्पण ,
आज फिर उर में प्रिया की याद जागी
प्रेम की दारुण व्यथा का विषम दंशन !
*
रागिनी-अनुरागिनी बन सरस कर दे सृष्टि के कण ,
काम चिर सहचर,  सुरति तू ही विवसना वासना बन
और फिर चैतन्य-मन की ऊर्ध्वगामी भावना बन ,
शुभे,कुंठाहीन मन को मुक्त कर ,
संतृप्ति बन जा ,शक्ति बन जा
तुझ बिना संसार यह कैसे चले ,
रति-रहित जीवन ,सहज व्यवहार भी कैसे चले.
और तेरा पति कहाँ तुझ बिन रहेगा ,
छानता आकाश-धरती ,लोक तीनों आ मिलेगा!
*
वासना के आदि का अनुमान तू ही मनसिजे ,
उद्दाम यौवन का सुलगता भान तू ही ,
जा, सभी शृंगार सज कर कामिनी बन,
राग बन ,सौंदर्य बन, माधुर्य बन ,
हर एक रचना में,  कला में,
सृष्टि की गति ताल लय  मे  नृत्य की झंकार तू
हर राग का आधार तू,
 रस-धार तू!
संस्कृतियों में बसी सौजन्य सुरुचि सँवार तू!
*
रति तुम्हीं हो प्रीति ,तुम आसक्ति ,तुम अनुरक्ति बनतीं ,
कान्ता ,वात्सल्य ,दासी, सखी-सेवक-स्वामिनी तुम .
सर्वभाविनि हो रहो!
यौवना, चिर-सुन्दरी बन,  चिर सुहागिन ,
पूजनीया भक्ति ,तू ही भुक्ति बन
नवकाम के प्रतिरूप धारे व्याप्ति भी तू
व्यष्टि -सृष्टि- समष्टि में
कामरूपे रति ,तुम्हारी गति ,
अतीन्द्रिय और शब्दातीत !
*
शान्त क्रमशः चित्त थिर होने लगा ,
फिर नई आशा उमंगें हो उठीं बिंबित हृदय में ,
आ झुकी कर-बद्ध रति उन
निरामय उज्ज्वल पगों में!
निरखते हर,  नयन में भर
 अपरिमित संवेदनाएँ ,

हो रहीं उत्कीर्ण विद्युतदाम सम करुणा-प्रभाएँ!
*
अभय देता स्वस्तिमय कर
हो उठा आकाश भास्वर ,
स्वच्छ दर्पण सी दिशाएँ ,
मंद्र-रव भर समीरण देता संदेशा ,
पूर्ण होंगी सभी मंगल-कामनाएँ !
(शिव से वरदान पाकर रति का शोक शमित हुआ , सकल सृष्टि उपकृत होकर  ,नई आशा-उमंगों से दीप्तमान हो उठी)

*

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

महाकाल

*
कवि,महाकाल माँगता नहीं म़दु-मधुर मात्र ,
सारे स्वादों से युक्त परोसा वह लेगा.
भोजक, सब रस वाले व्यंजन प्रस्तुत कर दे
अपनी रुचि का वह ग्रास स्वयं ही भर लेगा .
रस-पूरित मधु भावों के संग तीखे कषाय भी हों अर्पण
वर्णों -वर्गों में स्वर के सँग, धर दो कठोर और कटु व्यंजन
उसकी थाली में सभी स्वाद ,सारे रस- भावनुभाव रहें
अन्यथा सभी को उलट-पलट अपना आस्वादन ढूँढेगा !
*
रुचि का परिमार्जन है अनिवार्य शर्त उसकी
उन दाढ़ों में सामर्थ्य कि सभी करे चर्वण ,
कड़ुआहट खट्टापन का पाक न पाया तो
अपने हिसाब से औटेगा ले वही स्वयं.
उस रुद्र रूप को ,तीखापन ज़्यादा भाता
युग -युग के संचित कर्मों के आसव के सँग
नयनों में उसके थोड़ा नशा उतर आता ,
खप्पर में भरे तरल का ले अरुणाभ रंग !
*
वह ग्रास-ग्रास कर जो भाये वह खायेगा ,
जब चाहे जागे या चाहे सो जायेगा.
उसकी अपनी ही मौज और अपनी तरंग !
कवि ,उसको दो जीवन का आस्वादन समग्र !
सबसे प्रिय भावाँजलि  स्वीकार करेगा वह
दिख रहा सभी जो उसका एक परोसा है ,
क्म-क्रम से कवलित कर लेना उसका स्वभाव .
*
बाँटता अवधि का दान कि जिसका जो हिस्सा ,
सिर-चढ़ कर वह कीमत भी स्वयं वसूलेगा.
भोजन परसो कवि, महाकाल की थाली में,
षट्-रस  नव-रस में परिणत कर, दो नये स्वाद ,
पकने दो उत्तापों की आँच निरंतर दे ,
रच रच पागो अंतर की कड़ुआहट- मिठास!
नित नूतन स्वाद ग्रहण करने का आदी है ,
परिपक्व बना प्रस्तुत कर दो
स्वर के व्यंजन
नव रस भर धर उसके समक्ष!
*
हो वीर -रौद्र सँग करुणा - दूबा विषाद !
वत्सलता उन नन्हों को जो बच जाते हैं
निर आश्रित हो उस विषम काल के तुरत बाद !
कवि अगर दे सको ,अपने कोमल भाव उन्हें ,
दे दो उछाह से भरा प्रेम का राग उन्हें !
मुरझाई छिन्न कली को साहस, शान्ति-धीर ,
बेआस बुढ़ापा  शान्ति- भक्ति से संजीवन !
सब उस अदम्य की थाती शिरसा स्वीकारो,
कुछ नये मंत्र उच्चार करो,
 दे नये तंत्र का आश्वासन !
*
निश्चिंत हृदय निश्चित सीमा ,
अग्रिम ही सब कुछ लो सँवार.
सब डाल चले जो अपनी झोली में भर वह,
यों ग्रहण करे तो धन्य समझ, अन्अन्य भाग !
*
वह जन्म-मृत्यु का भोग लगाता नित चलता !
जो दाँव स्वयं को लगा ,सके आगे आये.
अपनी अभिलाषा, आशायें आकर्षण भी
सारे सपने उसके खप्पर में धर जाये !
कवि वह अपराजित टेर रहा ,लाओ दो धर
बढ़ कर चुन लेगा ताज़े पुष्प मरंद भरे.
सबसे टटकी कलियाँ बिंध, माल सजायें उसकी छाती पर ,
उसकी पूजा में कौन डाल पाये अंतर !
*

अक्षत अंजलि संकल्पित हो सम्मान सहित ,
जो बिना शिकायत सहज भाव न्योछावर दे
बिन झिझके सौंपे अपने प्रियतम चरम भाव ,
निरुद्विग्न मनस् धर चले आरती- भाँवर दे !

धर दे निजत्व उसके आगे विरहित प्रमाद !
प्रस्तुत कर दे रे, महाकाल का महा- भोग
तू भी है उसकी भेंट स्वयं बन जा प्रसाद !
*
उसके कदमों की आहट पर जीते हैं युग ,
उसके पद-चाप बदल देते इतिहासों को !
संसार सर्ग,युग एक भाव ,
मन्वंतर कल्प करवटें ,युग-संध्यायें निश्वास हेतु
इस महाकाश में लेते उसके चित्र रूप !
है महाकाव्य यह सृष्टि बाह्य-अंतःस्वरूप.
अनगिनती नभ-गंगायें ये विस्तृत-विशाल ,
उसका आवेष्टन रूप व्याप्तिमय व्याल-जाल !
उस महाराट् के लिये
बहुत लघु,लघुतम हम ,
पर उस लघुता में भी है उसका एक रूप !
*
बस यही शर्त जिसको भाये, आगे आये!
आमंत्रण स्वीकारे तम के प्रतिकार हेतु
अनसुनी करे जो इस दुर्वह पुकार को सुन,
वह लौट जाय निज शयन-भवन अभिसार हेतु !
*
कवि ,चिर प्रणम्य वह माँग रहा
तेरे उदात्ततम अंतःस्वर !
जिसमें युगंधरा गाथायें निज को रचतीं !
जो महाभाव से आत्मसात् हो सके सतत
उसका अपना स्व-भाव उसकी तो परख यही
सत्कृत कर ,धरो सधे शब्दों का ऐसा क्रम ,
जिसमें तुम समा सको संसृति के चरम भाव !
*
वह नृत्य करेगा महसृष्टि को मंच बना ,
लपटों को हहराता सब तमस् जला देगा ,
उन्मत्त चरण धर आकाशों को चीर-चीर
क्षितिजों के घेरे तोड़, गगन दहका देगा !
*
भीषण भावों के व्यक्त रूप मुद्राओं में
भर मृत्यु- राग उठते भैरव डमरू के स्वर
लिपि बद्ध कर सको भाषा में लक्षित-व्यंजित
तो समझो तुम तद्रूप हो गये अमर-अजर !
*

शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

अंतिम शरण्य

*
किस विषम परिस्थिति में डाला विचलित मन काँप-काँप जाता ,,
कैसी यह आज्ञा सखे ,कि जिसको सुन कर ही मन घबराता !
एक ही वधू ,वर पाँच-पाँच ,कैसे यह मुख से निकल गया .
वे स्वयं करें अब समाधान कुछ दे फिर से संदेश नया !'
हँस रहे जनार्दन ,'अरे सखी ,यह कैसा है अद्भुत प्रलाप !
तुम कहो यही है शिरोधार्य ,पूरा कर डालो कहा कार्य.
*
जीवन का ढर्रा रहा वही, मेरी प्रधान महिषियाँ आठ ,
तुम घबराई जाती हो क्यों, मिल रहे यहां पति सिर्फ़ पाँच!
यह सब समाज की व्याख्यायें सबके अपने-अपने प्रबंध ,
मन में उछाह ले,  कर डालो इस नयी कथा का सूत्र-बंध !'
'तुमको विनोद सूझा ,मेरे भीतर है कितना घोर द्वंद्व
अर्जुन को जयमाला डाली फिर और किसी का क्यों प्रयत्न !'
*
'देवी कुन्ती की संतानों के पिता भिन्न पर उचित सभी !'
'पर मुझे विवशता कौन, पार्थ में क्या इतनी सामर्थ्य नहीं ?'
'पर तुम पीछे क्यों रहो सखी ,द्विविधा मुझको लगती विचित्र,
कितने प्रकार के पति होंगे, वे पृथा बुआ के पाँच पुत्र !'
'उपहास कर रहे ,करो तुम्हारी बारी ,चाहे जो कह लो !'
'यह हँसी न कृष्णे, सत्य तत्व की बात आज मन में धर लो !
*
'कोई भी अंतिम सत्य नहीं ,कुछ भी तो यहाँ तटस्थ नहीं
सापेक्ष सभी प्रिय कृष्णे , और व्यतिक्रम भी होते सदा यहीं !
केवल समाज कल्याण हेतु परिभाषित करने का उपक्रम ,
कहलाते अपने को प्रबुद्ध जो, पाले मन में कितना भ्रम !
पतिव्रत ?अब से तो पतियों को दे  संयम के कुछ नये पाठ
उन्मुक्त ह़दय से, जीवन के तुम ग्रहण करो नित नये भाव !'
*
'चुप रहो, अरे निर्लज्ज ,कह रहे क्या इसका भी जरा भान
इस तरह अनर्गल कर प्रलाप, क्यों तुम मेरे भर रहे कान !'
कृष्णे, तेरे आशु क्रोध पर आ जाता है बहुत प्यार ,
फिर जाने क्य-क्या सोच हृदय में करुणा भर आती अपार,
सुनकर कि 'नहीं होगा मुझसे ' हँस उठता है कोई अदृष्ट,
फिर वही कराये बिन ,उसका पूरा होता ही नहीं इष्ट!
*
कैसे समझाऊँ तुझे, कि मेरा कथन नहीं केवल विनोद
यह दृढ़ मन, सजग बुद्धि तू ,फिर किस तरह करूँ तेरा प्रबोध.
वरदान मिला है यह कि, पाँच भर्ताओं का लो अमित प्रेम !
यह तो कर्तव्य तुम्हारा हो, जब जिसके सँग हो वही नेम !
संसार यही है, जहाँ चल रहे जीवन के नित-नव प्रयोग,
बुधजन,ज्ञानी जन बतलाते अपने -अपने सबके सँजोग !
*
तुमको न दोष देगा कोई, है यही सामयिक परम धर्म ,
तुम तो प्रबुद्ध हो, स्वयं करो निस्पृह, निशंक कर्तव्य कर्म !
जब पाने ही हैं पाँच पुरुष तो करो व्यर्थ के क्यों विचार !
अर्जुन को पाया है तो फिर स्वीकार करो वे और चार ! '
'मैं बहुत विषम द्विविधा में हूँ ,कैसे पूरा कर पाऊँ व्रत
निष्ठाये बँट जायें तो बच पाये कैसे फिर मेरा सत ?'
*
'सखि पाँच हुये तो इससे क्या ,अपने में वे हैं सभी एक
वे पाँच, एक ही बने रहें है देवी कुन्ती की यही टेक !
तुम प्रखर, निभा लोगी कृष्णे, उनको अपने विवेक के बल ,
जीतना तुम्हें है यह बाज़ी, मेरा सहयोग बने संबल!
वे पाँच अँगुलियां हैं कृष्णे पर मुट्ठी उनकी सदा एक !
सबके अपने-अपने स्वभाव जिनको बाँधेगी डोर एक !
*
सत? मन की शुद्ध भावना ,तुम पावन-चरिता हो याज्ञसेनि
आनन्द और रस भोग विहित, तो नहीं कहाते पाप-श्रेणि !
वह भोग, नहीं अपराध कि कर्तव्यो का हो निर्वाह सतत,
वंचित क्यों रहो कि जीवन में जब नियति खोल कर बैठी पट!
जो अनायास पाया स्वीकारो द्विधा-ग्रस्त मत रहो विरत !
अनुरोध समझ यह समाधान स्वीकार करो तुम शान्त मनस् !'
*
इस समय परिस्थिति विषम बहुत, कौरवजन का शत्रुता भाव ,
उस पर तेरा हठ अर्जुन के जीवन पर क्या होगा प्रभाव ?
अति मान्य मातृ - आदेश , कि फिर तेरा आकर्षण दुर्निवार,
इन पाँचो का एकात्म भाव हो जाय न क्षण में क्षार- क्षार !
प्रिय अग्नि-संभवे , तुझको जो मैंने पढ़ पाया है अब तक
तू सचमुच निभा सकेगी उनके विषम काल का संकुल-पथ !
*
पा़ञ्चालि, सरल और अति निर्मल,उन सभी बंधुओँ के स्वभाव .
सिर धारेंगे वे, जो भी तुम दोगी धारण कर प्रेम-भाव !
यह अनायास आक्रोश छोड़, कर लो विचार हो शान्त-चित्त ,
केवल समर्थ ही परंपरा से व्यतिक्रम का पाता सुयोग !
हर बार बदल जाता है नारी और पुरुष का विषम गणित
इन संबंधों के तार और सारा ही उचित और अनुचित !'


'हर विषम काल में तुम देते आये हो संबल और साथ ,
जब घोर निराशायें घेरें, तब लगे कि तुम हो कहीं पास !'
ले कर अशान्त अति आकुल मन ,प्रिय मीत तुम्हारे ही  कारण ,
अनुबंध कर रही शिरोधार्य ,पा आज तुम्हारा आश्वासन.
करुणा-पूरित नयनों से कुछ क्षण मौन देखते  वह  प्रिय मुख
'यह तो कुछ नहीं.. अभी तो...' कहते सहसा  कृष्ण हुये चुप '
*
सब कुछ ले लियास्वयं, फिर भी आँका उसको कितना कम कर ,
जब-जब झाँका तो यही कहानी लिखी मिली नारी-मन पर !
बह पाता तप्त अश्रु-जल में जीवन का संचित खारापन,
तो फिर रह-रह जगती न चुभन टीसते नहीं दारुण-दंशन
अंतर करुणा से भर आता ,आगत का जब करता विचार
पर  तेरे आशु क्रोध पर कृष्णे,आ जाता है ,बहुत प्यार
*
बस, बहुत याज्ञसेनी, संयत हो इससे आगे सोच न कुछ
मैं जान और अनुमान रहा पर खोल नहीं सकता हूँ मुख
मैं प्रस्तुत हूँ, अब तुम्हीं सुनोगे, टेरें जब हो विकल प्राण ,
विश्वास बहुत, अपनी कृष्णा को तुम ही दोगे समाधान!'
तज राज और रनिवास चला आऊँगा रण हो या अरण्य,


*










गुरुवार, 12 नवंबर 2009

शिव-विरह

उमँगता उर पितृ-गृह के नाम से ही !
तन पुलकता ,मन उमड़ आता !
जन्म का नाता !
सती ,आई हुलसती ,
तन पहुँचता बाद में
उस परम प्रिय आवास में
पहले पहुँच जाता उमड़ता- दौड़ता मन!
*
यज्ञ-थल पर आगमन !
देखते चुप पूज्यजन-परिजन
निमंत्रित अतिथि ,पुरजन- भीड़ !
नेत्र सब विस्मित !नहीं स्वागत कहीं
विद्रूप पूरित बेधती, चुभती हुई सी दृष्टि !
*
भाग शिव का नहीं ,कोई कह रहा ,
यह आ गई क्यों !
'यज्ञ में है कहाँ शिव का भाग ?'
'किसलिये ?कुलहीन , उस दुःशील का परिवार में क्या काम !
क्यों चली आई यहाँ लेने उसी का नाम ?'
उठीं जननी ,
'क्यों भला, उसका कहाँ है दोष ?'
'दोष उसका ही कि नाता जोड़ अपमानित किया ,
फिर माँगती है भाग ,दिखला रोष !'
*
घोर पति अवमानना ,
उपहास नयनों में सहोदर भगिनियों के.
और ऊपर से पिता के वचन ;
दहकी आग !
क्षुब्ध दाक्षायणि ,हृदय की ग्लानि ,बनती क्षोभ !
-क्यों ,चली आई यहाँ ?
लोक में अपमान सह कर जिऊँ ,
प्रियपति के लिये लज्जा बनी मैं ?
पति, जिसे आभास था -
'सती ,मत जा ! द्वेष है मुझसे उन्हें !
अपमान सहने वहाँ, मत जा !'
किन्तु मेरा हठ !
विवश हो कर दे दिये गण साथ !
दहकता मानस कि दोहरा ताप !
एक विचलन ले गई पत्नीत्व का अधिकार ,
जग गया फिर तीव्र हो पिछला मनःसंताप,
और अब यह अप्रत्याशित और तीखा वार !
स्वयं पर उठने लगी धिक्कार,
नहीं जीने का मुझे अधिकार !
*
विरह-दग्धा , शान्तिहीन सती भटक कर
चली आई थी यहाँ ,पुत्रीत्व का विश्वास पाले !
फटा जाता हृदय किस विधि से सँभाले !
इस पिता के अंश से निर्मित
विदूषित देह !
हर से मिलन अब संभव नहीं !
*
क्रोध पूरित स्वर 'पिता , बस,
अब बहुत ,आगे कुछ न कहना !
तुम न पाये जान शिव क्या ?
और दूषण दे उन्हें लांछित किया जो ,
उसी तन का अंश हूँ मैं !
लो ,कि ऐसी देह ,मैं अब त्यागती हूँ !'
*
लगा आसन शान्त हो मूँदे पलकदल ,
योग साधा, प्राण को कर ऊर्ध्व गामी
ब्रह्म-रंध्र कपाल तपता ज्योति सा !
और लो, अति तीव्र पुंज- प्रकाश
मस्तक से निकल कर अंतरिक्षों में समाया !
प्राण हीना देह भर भू पर !!
*
रुक गय़े सब मंत्र के उच्चार !
लुप्त कंठों से कि मंगलचार !
मच गया चहुँ ओर हाहकार ,
यज्ञ- भू को चीरते चीत्कार गूँजे !
नारियाँ रोदन मचाती !
धूममय मेघावरण छाया धरा पर !
विभ्रमित से दक्ष , नर औ' देव ऋषि स्तब्ध !
क्रोध भर चीखें उठाते भूत-प्रेत अपार !
दौड़ते विध्वंस करते
रौद्र- रस साकार, क्रोधित शंभु गण विकराल !
*
और क्षिति के मंच पर फिर हुआ दृष्यान्तर -
कामनाओं की भसम तन पर लपेटे ,
बादलों में उलझता गजपट लहरता,
घोर हालाहल समाये कंठ नीला ,
बिजलियों को रौंदते पल-पल पगों से ,
विकल संकुल चित्त, सारा भान भूला
गगन पथ से आ रहे शंकर !
*
मेघ टकराते ,सितारे टूट गिरते,
जटायें उड़-उड़ त्रिपथगा पर हहरतीं ,
वे विषैले नाग लहराते बिखरते
भयाकुल सृष्टा कि ज्वालायें न दहकें !
पौर-परिजन जहाँ जिसका सिर समाया !
यज्ञ-भू में ,दक्ष का लुढ़का पड़ा सिर
रुंड वेदी से छिटक कर ,
कुण्ड-तल में जा गिरा शोणित बहाता !
*
यज्ञ-हवि लोभी ,प्रताड़ित देव भागे ,
सुक्ख-भोगी स्वार्थी निष्क्रिय अभागे ,
कंदराओं में छिपे हतज्ञान कुंठित ,
दनुज- नर- किन्नर सभी हो त्रस्त विस्मित !
यज्ञ-भू में बह रही अब रक्तधारें ,
काँपते धरती- गगन बेबस दिशायें !
उड़ रहीं हैं मुक्त बिखरी वे जटायें ,
तप्त निश्वासें कि दावानल दहकते
कंठगत उच्छ्वास , ऐसा हो न जाये .
कहीं उफना कर कि तरलित गरल बिखरे !
मचाते विध्वंस शिवगण क्रोध भरभर ,
चीखते मिल प्रेत जैसे ध्वनित मारण- मंत्र !
रव से पूर्ण अंबर !
*
स्वयं की अवमानना से जो अविचलित ,
पर प्रिया का मान क्यों कर हुआ खंडित !
वियोगी योगी- हृदय की क्षुब्ध पीड़ा,
देखतीं सारी दिशायें नयन फाड़े !
*
मानहीना हो पिता से जहाँ पुत्री ,
उस परिधि में क्यों रहे स्थिर धरित्री ?
स्तब्ध हैं लाचार-सी सारी दिशायें ,
दनुज, नर भयभीत ,सारे नाग ,किन्नर !
कंठगत विष श्वास में घुलता निरंतर !
घूमते आते पवन-उन्चास हत हो लौटते फिर !
और अर्धांगी बिना,मैं अधूरा -सा ,रिक्त -सा ,अतिरिक्त सा
दिग्भ्रमित जैसे कि सब सुध-बुध बिसारे ,
देखते कुछ क्षण वही बेभान तन !
फिर भुजा से साध ,वह प्रिय देह काँधे पर सँवारे ,
हो उठे उन्मत्त प्रलयंकर !
प्रज्ज्वलित-से नयन विस्फारित भयंकर ,
वन- समुद्रों- पर्वतों के पार, बादल रौंदते ,
विद्युत- लताओं को मँझाते ,घूमते उन्मत्त से शंकर !
*
प्रिया की अंतर्व्यथा का बोध
रह-रह अश्रु भर जाता नयन में !
तप्त वे रुद्राक्ष झर जाते धरा पर !
पर्वतों- सागर- गगन में मत्त होकर घूमते शंकर !
छोड़ते उत्तप्त निश्वासें !
उफनते सागर कि धरती थरथराती ,
पर्वतों की रीढ़ रह-रह काँप जाती !
शून्यता के हर विवर को चीरती -सी
अंतरिक्षों में सघन अनुगूँज भरती !
*
कौन जो इस प्रेम-योगी को प्रबोधे ?
विरह की औघड़ -व्यथा को कौन शोधे ?
इस घड़ी में कौन आ सम्मुख खड़ा हो !
सृष्टि - हित जब प्रश्न बन पीछे पड़ा हो !
*
हो उठे अस्थिर रमापति सोच डूबे ,
तरल दृग की कोर से रह-रह निरखते,
किस तरह शिव से सती का गात छूटे !
किस तरह व्यामोह से हों मुक्त शंकर ?
किस तरह इस सृष्टि का संकट टले ,
कैसे पुनः हो शान्त यह नर्तन प्रलयकर !
*
दो चरण सुकुमार ,आलक्तक- सुरंजित , नूपुरोंयुत
विकल गति के साथ हिलते-झूलते
भस्म लिपटी कटि ,कि बाघंबर परसते !
चक्र दक्षिण तर्जनी पर
यों कि दे मृदु-परस वंदन कर रहे हों,
यों कि अति लाघव सहित
पग आ गिरें भू पर !
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और क्रम-क्रम से -
कदलि जंघा ,कटि,
वलय कंकण मुद्रिका सज्जित सुकोमल कर अँगुलियाँ ,
पृष्ठ पर शिव के निरंतर झूलता हिलता
सती का शीश ,श्यामल केश से आच्छन्न !
वह सिन्दूर मंडित भाल !
कर्णिका मणि जटित जा छिटकी कहीं ,
मीलित कमल से नयन
जिह्वा ओष्ठ दंत,कपोल,नासा
विलग हों जैसे कि किसी विशाल तरु से पुष्प झर-झर !
और फिर अति सधा मंदाघात !
शंकर की भुजा में यत्न से धारित ,
हृदय से सिमटा कमर- काँधे तलक देवी सती का शेष तन
गिरा हर हर !
मंद झोंके से कि जैसे विरछ से
सहसा गिरे टूटी हुई शाखा धरा पर !
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हाथ शिव का ढील पा कर
झटक झूला !
और चौंके शंभु हो हत-बुद्ध !
यह क्या घट गया ?
थम गया ताँडव ,रुके पग !
जग पड़े हों सपन से जैसे,
देखते चहुँ ओर भरमाये हुये से !
धूम्रपूरित बादलों में छिपी धरती ,
चक्रवाती पवन चारों ओर से अनुगूँज भरता !
कुछ नहीं ,कोई नहीं बस एक गहरी रिक्ति !
घूमता है सिर कि दुनिया घूमती है !
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और औचक शंभु
देखते वह रिक्त कर ,अतिरिक्त
यह क्या ?
कहाँ प्रिया ?
मूढ़ और हताश से विस्मित
विभ्रमित ,जड़, कुछ,समझने के जतन में
स्तंभित खड़े हर !

प्रश्न केवल प्रश्न ,कोई नहीं उत्तर !
थकित ,भरमाये ठगे से शिव खड़े निस्संग !!
स्वप्न यह है ? या कि वह था ?
याद आता ही नहीं क्या हो गया !
चिह्न कोई भी नहीं
सपना कि सच था ?
मैं कहाँ था ? मैं कहाँ हूँ ?
नहीं कोई यहाँ !
किससे कहें ? जायें कहाँ ?
*
पार मेघों के हिमाच्छादित विपुल विस्तार !
लगा परिचित- सा बुलाता ,
समा लेगा जो कि बाहु पसार !
स्वयं में डूबे हुये से ,
श्लथ-भ्रमित से अस्त-व्यस्त ,विमूढ़ बेबस ,
पर्वतों के बीच विस्तृत शिला पर आसीन !
स्वयं को संयत किये मूँदे नयन !
अभ्यास वश अनयास ही
शिव हुये समाधि-विलीन !
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