*
लो ,चली ये शंभु की बारात !
आज गौरी वरेंगी जगदीश्वर को
चल दिये है ब्याहने अद्भुत बराती साथ .
चढ़े बसहा चढे शंकर ,लिए डमरू हाथ ,
बाँध गजपट,भाँग की झोली समेटे काँख,
साथ चल दी ,विकट अद्भुत महाकार जमात!
बढ़ चली लो शंभु की बारात.
*
सब विरूपित ,विकृत सब आधे अधूरे ,
चल दिए पाकर कृपा का हाथ ,
अंध, कोढ़ी, विकल-अंग, विवस्त्र, विचलित वेश,
कुछ निरे कंकाल कुछ अपरूप,
विकृत और विचित्र- देही विविध रूप अशेष
अंग-हत कंकाल ज्यों हों भूत -प्रेत-पिशाच !
नाचते आनंद स्वर भर गान परम विचित्र,
बन बराती चल दिएसब संग .
*
चले सभी, कि आज हो आतिथ्य पशुपति साथ
आज तो वंदन मिलेगा और चंदन भाल.
मान -पान समेत स्वागत भोग, सुरभित माल,
रूप-रँग-गुण हीन ,वस्त्र-विहीन ,सज्जा-हीन ,
तृप्ति पा लेंगे सभी पा अन्न और अनन्य!
*
वंचितों को शरण में ले हँसे शंभु प्रसन्न.
पूछता कोई न जिनको ,सब जगत भयभीत
त्यक्त हैं अभिशप्त ज्यों, कैसी जगत की रीत!
चिर-उपेक्षित शंभु से जुड़ पा गए सम्मान ,
चल दिए स्वीकार करने शंभु कन्यादान
*
देख पशुपति की विचित्र बरात.
देव-किन्नर यक्ष दनुसुत नाग सब चुपचाप
भ्रमित ,विस्मित किस तरह हों बन बराती साथ .
सोच में हैं यह कि भोले को चढ़ी है भंग,
हरि ,विरंचि , मनुज सभी तो रह गए हैं दंग!
*
जानते शिवशंभु सबका सोच.
कौन है संपूर्ण ,पशु-तन तो सभी के साथ.
कौन है परिपूर्ण सबके ही विकारी अंग?
मौन विधि,नत-शीश हैं देवेन्द्र,
और इनकी व्याधियाँ- बाधा हरेगा कौन ,
चेतना का यह विकृत परिवेश ,
दोष किसका ,यह बताए कौन ?
*
तुम सभी पावन परम ,ले दिव्य ,सुन्दर रूप ,
देह धर आए यहाँ आनन्द के ही काज,
शक्तियों-सह चल, करो सब साज स्वागत हेतु.
रहो हिमगिरि के भवन धर कर घराती रूप ,
मैं कि पशुपति करूँगा स्वीकार ये पशु-रूप .
सृष्टि का विष कंठ, सभी विकार धर कर शीष,
ये उपेक्षित त्यक्त, मेरे स्वजन बन हों संग,
शिव बिना अपना सकेगा कौन ?
स्वयं भिक्षुक बना याचक मंडली ले साथ
आ रहा हूँ माँगने लोकेश्वरी का हाथ!
रहे वंचित,निरादृत अब तृप्त हों वे जीव ,
स्वस्थ सहज प्रसन्न मन की मिले हमें असीस .
*
डमरु की अनुगूँज,जाते झूम ,
विसंगतियों में ढले वे दीन-दरिद अनाथ,
नृत्य करते ,तान भरते विकट धर विन्यास!
हुए कुंठाहीन . आत्म भर आनन्द-लीन विभोर-
आज सिर पर परम शिव का हाथ.
चल पड़ी लो शंभु की बारात !
*
लो ,चली ये शंभु की बारात !
आज गौरी वरेंगी जगदीश्वर को
चल दिये है ब्याहने अद्भुत बराती साथ .
चढ़े बसहा चढे शंकर ,लिए डमरू हाथ ,
बाँध गजपट,भाँग की झोली समेटे काँख,
साथ चल दी ,विकट अद्भुत महाकार जमात!
बढ़ चली लो शंभु की बारात.
*
सब विरूपित ,विकृत सब आधे अधूरे ,
चल दिए पाकर कृपा का हाथ ,
अंध, कोढ़ी, विकल-अंग, विवस्त्र, विचलित वेश,
कुछ निरे कंकाल कुछ अपरूप,
विकृत और विचित्र- देही विविध रूप अशेष
अंग-हत कंकाल ज्यों हों भूत -प्रेत-पिशाच !
नाचते आनंद स्वर भर गान परम विचित्र,
बन बराती चल दिएसब संग .
*
चले सभी, कि आज हो आतिथ्य पशुपति साथ
आज तो वंदन मिलेगा और चंदन भाल.
मान -पान समेत स्वागत भोग, सुरभित माल,
रूप-रँग-गुण हीन ,वस्त्र-विहीन ,सज्जा-हीन ,
तृप्ति पा लेंगे सभी पा अन्न और अनन्य!
*
वंचितों को शरण में ले हँसे शंभु प्रसन्न.
पूछता कोई न जिनको ,सब जगत भयभीत
त्यक्त हैं अभिशप्त ज्यों, कैसी जगत की रीत!
चिर-उपेक्षित शंभु से जुड़ पा गए सम्मान ,
चल दिए स्वीकार करने शंभु कन्यादान
*
देख पशुपति की विचित्र बरात.
देव-किन्नर यक्ष दनुसुत नाग सब चुपचाप
भ्रमित ,विस्मित किस तरह हों बन बराती साथ .
सोच में हैं यह कि भोले को चढ़ी है भंग,
हरि ,विरंचि , मनुज सभी तो रह गए हैं दंग!
*
जानते शिवशंभु सबका सोच.
कौन है संपूर्ण ,पशु-तन तो सभी के साथ.
कौन है परिपूर्ण सबके ही विकारी अंग?
मौन विधि,नत-शीश हैं देवेन्द्र,
और इनकी व्याधियाँ- बाधा हरेगा कौन ,
चेतना का यह विकृत परिवेश ,
दोष किसका ,यह बताए कौन ?
*
तुम सभी पावन परम ,ले दिव्य ,सुन्दर रूप ,
देह धर आए यहाँ आनन्द के ही काज,
शक्तियों-सह चल, करो सब साज स्वागत हेतु.
रहो हिमगिरि के भवन धर कर घराती रूप ,
मैं कि पशुपति करूँगा स्वीकार ये पशु-रूप .
सृष्टि का विष कंठ, सभी विकार धर कर शीष,
ये उपेक्षित त्यक्त, मेरे स्वजन बन हों संग,
शिव बिना अपना सकेगा कौन ?
स्वयं भिक्षुक बना याचक मंडली ले साथ
आ रहा हूँ माँगने लोकेश्वरी का हाथ!
रहे वंचित,निरादृत अब तृप्त हों वे जीव ,
स्वस्थ सहज प्रसन्न मन की मिले हमें असीस .
*
डमरु की अनुगूँज,जाते झूम ,
विसंगतियों में ढले वे दीन-दरिद अनाथ,
नृत्य करते ,तान भरते विकट धर विन्यास!
हुए कुंठाहीन . आत्म भर आनन्द-लीन विभोर-
आज सिर पर परम शिव का हाथ.
चल पड़ी लो शंभु की बारात !
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