मंगलवार, 3 नवंबर 2009

झेलम का पत्र

*
झेलम ने पत्र लिखा कावेरी को -
'बहना !
सौभाग्यवती चिर रहो ,तुम्हें मेरा दुलार ,
सब बहनों को हिमवान पिता का शुभाशीष !
कावेरी बहना ,बड़ी याद आती तेरी ,
मेरी सुख-दुख की समभागिन ,मन के समीप ।'
*
अंतर में छलकी व्यथा हुईं व्याकुल लहरें , काँपे चिनार ।
'संयम रख बहिन ,' सिन्धु बोली !
संयत हो झेलम बढ़ी -
' यहाँ का सुनो हाल -
लिख जाऊँगी सब आज तुम्हें अपनी बातें ।
मन उखड़ा-सा रहता ,कुछ समझ नहीं आता ,
कटती ही नहीं यहाँ अवसाद भरी रातें ।
रावी - सतलज ने अपनी शान्ति गँवा दी है
बहना यमुना पर घनी उदासी छाई है !
गंगा का पावन हास छिन गया हो जैसे ,
कैसी उजाड़ , विषभरी हवायें आई हैं ।
खाता पछाड़ पागल सा ब्रह्मपुत्र भ्राता ,
ये भइया शोण, बिलखता तट से टकराता !
*
‘कावेरी ,खुला पत्र यह तेरे नाम लिखा ,
नर्मदा ,ताप्ती ,कृष्णा को पढ़वा देना !
उत्तर को जो सौंपा था छिना जा रहा है ,
गोदावरि की लहरों को समझा कर कहना !
विन्ध्या से कहना स्थिति पर कर ले विचार ,
पश्चिमी घाट तक पहुँचा देना आमंत्रण ,
उत्तर पूरव को ख़ुद कह आयेगी गंगा,
गारो ,खासी ,पटकोई तक कुछ बढ़ा कदम !’
*
फिर कलम रुकी ,झेलम ने ठंडी साँस भरी ,
होकर उदास सोचने लगी क्या लिखूँ उन्हें !
पूछा चिनाब से हाल ,सिंधु से ली सलाह !
लहरों की तरल वर्णमाला फिर उभर चली !
आगे झेलम ने लिखा -

' हम सबने जिसको जीवन-जल से सींचा था ,
विष-वृक्ष उगे आते हैं उस प्रिय धरती पर ,
आतंक मेघ- सा घहराता आकाशों में
हत्बुद्धि खडे हैं तट के सारे ग्राम - नगर !
वे धर्म,प्रान्त ,भाषा की पट्टी पढ़ा-पढ़ा ,
सदियों के दृढ़ संबंध तोड़ने को तत्पर ,
उत्थान-पतन जाने कितने देखे अब तक ,
पर नहीं सुना था कभी यहाँ विघटन का स्वर !

' बहना ,जुम्मेदारी तो अपनी सबकी है ,
तुम पर भी संकट ,ऐसा है अब भान मुझे ,
लग रहा सदा को डूब गये वे स्वर्ण प्रहर !
बहना ,चिट्ठी का शीघ्र – शीघ्र देना उत्तर !'
*
 कावेरी का उत्तर -
संदेश मिला, झेलम के सारे हाल पढ़े,
गिरनार-अरावलि उठे विंध्य की ओर बढ़े ,
पूरवी -पश्चिमी घाट खिसक आये आगे ,
उत्सुकता से नागा पर्वत के कान खड़े !
आश्वस्त रहे झेलम, उत्तर देने अपना ,
कावेरी ने लहरों की लिपि में शुरू किया --

'झेलम, हम सबका राम-राम !
गुरुजन असीसते, छोटे सब कहते प्रणाम !

'झेलम, धीरज धारो हम सब हैं साथ-साथ !
संतप्त यहाँ हम भी ,चिन्ताओं से व्याकुल ,
लेकिन आशा-विश्वासों का है कुछ संबल !
*
'ताँडव होता विद्वेषों अतिचारों का जब-जब
परिहार हेतु अवतरित हुआ कोई तब-तब !
ऐसा फिर होगा आने तक वह बिन्दु- चरम
फिर से पलटेंगे अच्छे दिन अपने, झेलम !'

'कोरी सांत्वना उसे मत दे, री कावेरी ,'
'जब कटु यथार्थ सामने खड़ा '
 कृष्णा लहरी,
गिरनारनार -नीलगिरि एक साथ ही बोल पड़े,
कुछ ताप हृदय में, उमड़ा स्वर हो गये कड़े -
' मत गा बहना ,वे गाथायें जो बीत गई ,
इस वर्तमान में कैसे उबरें प्रश्न यही !'

कावेरी ने स्वीकारा औ' रुक गई कलम !
' क्या उत्तर दें ? देखती बाट होगी झेलम !'
*
कुछ बातें कही गईं ,कुछ तर्क-वितर्क हुये
विश्लेषण हुआ समस्या का
सहमति से निर्णय लिये गये !
लहरों की तरल वर्णमाला फिर उभर चली -

' जिस संकट ने चहुँ ओर हमें आ घेरा है ,
वैसा न हुआ था इतनी बीती सदियों में !
सूखे पहाड़ से तन ,छिनती सी हरियाली ,
छाया विषाद पर्वत-पर्वत में नदियों में !
इस दुनियाँ में सबको अपनी-अपनी चिन्ता ,
अपना हित ही है रीति-नीति और प्रीत यहाँ ,
आदर्शों का बोझा लादा किसकी ख़ातिर ,
भोंकते पीठ में छुरा कि बन कर मीत जहां ?

जब निहित स्वार्थवश तुष्टीकरण नीति पर चल ,
पिछली भूलों से सबक न लें , कर्ता-धर्ता ,
जब लोक-तंत्र भी भेद-भाव का हो शिकार ,
सिर धरे जायँ जन के अधिकारों के हर्ता !
बहु और अल्प-संख्यक में बाँट दिया इनने
आस्था -धर्म को,राजनीति की गेंद बना ,
निरपेक्ष कहाते सुविधायें -दुविधायें दे ,
आगे भविष्य किस तरह करेगा इन्हें क्षमा !
*
'कुछ पले हुये हैं यहाँ साँप आस्तीनों में ,
जो उगल- उगल कर ज़हर काढ़ते रहते फन !
कुछ ऐसे हैं निर्लज्ज परायों के पिट्ठू ,
' वे मातृभूमि- द्रोही , वे संस्कृति के दुश्मन !
धर हाथ हाथ पर देख रहे जन घर में ही होता अनर्थ ,
तो फिर मानव जीवन का क्या रह गया अर्थ?
'
जिसके हाथों में डंडा वही हाँक लेता ,
यह तंत्र ,कि रह जाता है लोक तमाशबीन ,
' यह संधिकाल ,इस समय अगर चेता न देश ,
तो छिन्न-भिन्न हो बिखर जाय , हो ये न कहीं ,
यह कहते भग्न हृदय,
लेकिन अपराध- बोध चुप रहने में
अंतर की व्यथा बहिन ,अब जाती नहीं सही !
*
'अब आगे बढ़ झकझोर जगाना है हम को
तटवासी ग्राम नगर की तोड़ नींद ,कह दो -

' तुम न्याय-नीति के लिये लड़ो निर्भय हो कर'
'ना दैन्य ,पलायन नहीं' , चित्त को स्थिर कर !'
यह महावाक्य अब बने यहाँ जीवन-दर्शन !
फिर नई चेतना से भर जाग उठे जन जन !
' अपनी अस्मिता ,न्याय को ले,
अंतिम क्षण तक लड़ना वरेण्य,
सारथी और गुरु नारायण,
संग्राम पार्थ का ही करेण्य !'
नगराज पूज्य को नत-शिर हम सबका वंदन !
थोड़े लिक्खे से बहुत समझना ,प्रिय झेलम !'
*

7 टिप्‍पणियां:

  1. 'लहरों की तरल वर्णमाला'

    वाह! :) सही है नदियाँ लहरों की लिपि में ही तो लिखेंगी....

    'गिरनार-अरावलि उठे विंध्य की ओर बढ़े ,
    पूरवी -पश्चिमी घाट खिसक आये आगे ,
    उत्सुकता से नागा पर्वत के कान खड़े !'
    बेहद खूबसूरत मंज़र.....इतना अच्छा लगा पढ़ना ये तीन पंक्तियाँ.....कितना प्यारा लिखा है प्रतिभा जी.....जीवन भर दिया इन ३ पंक्तियों में.......जैसे घर में (पुराने समय में) नानी के घर से चिठ्ठी आती थी..तो मैं और भैया अलर्ट होकर आगे खिसक खिसक कर माँ के पास चले आते थे..:):)

    एक बात और कहूँगी...:(:(.....अंत उतना प्रभावशाली जाने क्यूँ नहीं प्रतीत हुआ...ऐसा लगा कुछ रह गया बाक़ी कहने को...ho sakta hai...maine hi sahi nahin samjha ho...hmm fir prayatn karungi..:(

    खैर,बहुत मोहक चित्र खींचा है और कितनी ज़रूरी समस्या उठाई है नदियों के माध्यम से....बधाई इसके लिए...

    (जी एक तुच्छ सा निवेदन है...'शोण' का अर्थ...गूगल से देखा...(लाल रंग)..और अविनाश ने भी एक जगह इसका प्रयोग ''लाल'' के तौर पर किया...
    मगर आपकी इस कविता में इसका क्या अर्थ है?? शायद कोई नदी या झील....:(..???
    समय हो जब कभी भी थोड़ा सा तो अगर बता सकें...:(...वरना प्रतिभा जी वो पंक्ति मेरे दिमाग से निकलेगी नहीं...:(...... )
    अग्रिम धन्यवाद........:)

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  2. तरु,शोण भारत की एक नदी है -जिसे सोन कहते हैं .प्रसाद की ममता कहानी में (ऐसा कुछ याद आ रहा है)शोण नद का उल्लेख आया है .एक बात और हमारे यहाँ और सब नदियाँ हैं ,केवल दो ब्रह्मपुत्र और शोण को ही पुल्लिंग माना गया है .

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  3. हाँ तरु जी ,एक बात कहना तो भूल ही गई -आप नर्मदा तटवासिनी हैं आपने नर्मदा और शोण की (असफल) प्रेम-कथा नहीं पढ़ी ?एक नदी है जोहिला ,नर्मदा की सखी,उसने सखी-धर्म नहीं निभाया था.कभी मौका लगा तो इस पर कुछ लिखूँगी .

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  4. Jee Shukriya..

    hmm...aisi to koi prem katha nahin padhi...Tatvaasini hi hoon bas...itna jaanti nahin vistaar se......:(

    abki Maa Narmada ke darshan ke liye jaaungi..to wahan pujari ji se poochhungi...:)

    shukriya aapne waqt diya apna keemti wala...:)

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  5. kya Pratibha Jee,

    fir se aapne 'aap' kehke mukhaatib kiya...

    :(

    maine 'tum' ki aadat daal li thi...itti si to apeksha hi hai bas....:(

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  6. जी...प्रतिभा जी..:D....मैंने कथा पढ़ ली....

    हुआ दरअसल ऐसा...कि कुछ खोज रही थी गूगल पर.....यकायक.....बिजली की तरह कौंधता हुआ एक संशय मिश्रित प्रश्न रुपी व्यंग्य दिमाग में आया......कि कह तो दिया प्रतिभा जी को...कि पुजारी जी से पूछोगी...मगर माता नर्मदा तो जानती ही होंगी...कि ऐसे ऐसे हुआ होगा...और तरु बजाये तुरंत ढूँढने के use taal kar...गूगल में दुनिया भर की चीज़ें खोज रही है..और खोजती रहती है.....और बस उनकी अपनी कथा पुजारी जी से पूछेगी वो भी जब कभी जाना होगा तब...........:(

    एहसास हुआ जैसे ही गलती का...फटाफट...ढूंढी कथा...एक ब्लॉग पर मिल भी गयी..(भला हो उन ब्लॉग वाले श्रीमान जी का)......और जोहिला के बारे में bhi जान लिया......


    bahut इंतज़ार रहेगा..जब भी आप जोहिला और माँ रेवा के बारेमें रचना लिखेंगी......बताईयेगा कृपा करके..:(.....vastav mein उत्कंठा रहेगी jaanne kee कि आप माँ नर्मदा के मनोभावों को किस रूप में चित्रित करेंगी...

    बहुत आभार प्रतिभा जी.....:)

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  7. कैसा अनोखा, मधुरिम पत्र है यह!
    आदि से अंत तक, मन स्पंदित होता रहा. यह वार्ता, यह संवाद, यह विचार!! मुग्ध हूँ.

    अपनी अस्मिता ,न्याय को ले, अंतिम क्षण तक लड़ना वरेण्य,
    सारथी और गुरु नारायण,संग्राम पार्थ का ही करेण्य !

    यह पढ़ परम ऊर्जा से पुलकित हो उठा है रोम-रोम.
    तरु दी की तरह ही मैं भी प्रतीक्षारत रहूँगा,
    आभार!

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