सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

महाकाल

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कवि,महाकाल माँगता नहीं म़दु-मधुर मात्र ,
सारे स्वादों से युक्त परोसा वह लेगा.
भोजक, सब रस वाले व्यंजन प्रस्तुत कर दे
अपनी रुचि का वह ग्रास स्वयं ही भर लेगा .
रस-पूरित मधु भावों के संग तीखे कषाय भी हों अर्पण
वर्णों -वर्गों में स्वर के सँग, धर दो कठोर और कटु व्यंजन
उसकी थाली में सभी स्वाद ,सारे रस- भावनुभाव रहें
अन्यथा सभी को उलट-पलट अपना आस्वादन ढूँढेगा !
*
रुचि का परिमार्जन है अनिवार्य शर्त उसकी
उन दाढ़ों में सामर्थ्य कि सभी करे चर्वण ,
कड़ुआहट खट्टापन का पाक न पाया तो
अपने हिसाब से औटेगा ले वही स्वयं.
उस रुद्र रूप को ,तीखापन ज़्यादा भाता
युग -युग के संचित कर्मों के आसव के सँग
नयनों में उसके थोड़ा नशा उतर आता ,
खप्पर में भरे तरल का ले अरुणाभ रंग !
*
वह ग्रास-ग्रास कर जो भाये वह खायेगा ,
जब चाहे जागे या चाहे सो जायेगा.
उसकी अपनी ही मौज और अपनी तरंग !
कवि ,उसको दो जीवन का आस्वादन समग्र !
सबसे प्रिय भावाँजलि  स्वीकार करेगा वह
दिख रहा सभी जो उसका एक परोसा है ,
क्म-क्रम से कवलित कर लेना उसका स्वभाव .
*
बाँटता अवधि का दान कि जिसका जो हिस्सा ,
सिर-चढ़ कर वह कीमत भी स्वयं वसूलेगा.
भोजन परसो कवि, महाकाल की थाली में,
षट्-रस  नव-रस में परिणत कर, दो नये स्वाद ,
पकने दो उत्तापों की आँच निरंतर दे ,
रच रच पागो अंतर की कड़ुआहट- मिठास!
नित नूतन स्वाद ग्रहण करने का आदी है ,
परिपक्व बना प्रस्तुत कर दो
स्वर के व्यंजन
नव रस भर धर उसके समक्ष!
*
हो वीर -रौद्र सँग करुणा - दूबा विषाद !
वत्सलता उन नन्हों को जो बच जाते हैं
निर आश्रित हो उस विषम काल के तुरत बाद !
कवि अगर दे सको ,अपने कोमल भाव उन्हें ,
दे दो उछाह से भरा प्रेम का राग उन्हें !
मुरझाई छिन्न कली को साहस, शान्ति-धीर ,
बेआस बुढ़ापा  शान्ति- भक्ति से संजीवन !
सब उस अदम्य की थाती शिरसा स्वीकारो,
कुछ नये मंत्र उच्चार करो,
 दे नये तंत्र का आश्वासन !
*
निश्चिंत हृदय निश्चित सीमा ,
अग्रिम ही सब कुछ लो सँवार.
सब डाल चले जो अपनी झोली में भर वह,
यों ग्रहण करे तो धन्य समझ, अन्अन्य भाग !
*
वह जन्म-मृत्यु का भोग लगाता नित चलता !
जो दाँव स्वयं को लगा ,सके आगे आये.
अपनी अभिलाषा, आशायें आकर्षण भी
सारे सपने उसके खप्पर में धर जाये !
कवि वह अपराजित टेर रहा ,लाओ दो धर
बढ़ कर चुन लेगा ताज़े पुष्प मरंद भरे.
सबसे टटकी कलियाँ बिंध, माल सजायें उसकी छाती पर ,
उसकी पूजा में कौन डाल पाये अंतर !
*

अक्षत अंजलि संकल्पित हो सम्मान सहित ,
जो बिना शिकायत सहज भाव न्योछावर दे
बिन झिझके सौंपे अपने प्रियतम चरम भाव ,
निरुद्विग्न मनस् धर चले आरती- भाँवर दे !

धर दे निजत्व उसके आगे विरहित प्रमाद !
प्रस्तुत कर दे रे, महाकाल का महा- भोग
तू भी है उसकी भेंट स्वयं बन जा प्रसाद !
*
उसके कदमों की आहट पर जीते हैं युग ,
उसके पद-चाप बदल देते इतिहासों को !
संसार सर्ग,युग एक भाव ,
मन्वंतर कल्प करवटें ,युग-संध्यायें निश्वास हेतु
इस महाकाश में लेते उसके चित्र रूप !
है महाकाव्य यह सृष्टि बाह्य-अंतःस्वरूप.
अनगिनती नभ-गंगायें ये विस्तृत-विशाल ,
उसका आवेष्टन रूप व्याप्तिमय व्याल-जाल !
उस महाराट् के लिये
बहुत लघु,लघुतम हम ,
पर उस लघुता में भी है उसका एक रूप !
*
बस यही शर्त जिसको भाये, आगे आये!
आमंत्रण स्वीकारे तम के प्रतिकार हेतु
अनसुनी करे जो इस दुर्वह पुकार को सुन,
वह लौट जाय निज शयन-भवन अभिसार हेतु !
*
कवि ,चिर प्रणम्य वह माँग रहा
तेरे उदात्ततम अंतःस्वर !
जिसमें युगंधरा गाथायें निज को रचतीं !
जो महाभाव से आत्मसात् हो सके सतत
उसका अपना स्व-भाव उसकी तो परख यही
सत्कृत कर ,धरो सधे शब्दों का ऐसा क्रम ,
जिसमें तुम समा सको संसृति के चरम भाव !
*
वह नृत्य करेगा महसृष्टि को मंच बना ,
लपटों को हहराता सब तमस् जला देगा ,
उन्मत्त चरण धर आकाशों को चीर-चीर
क्षितिजों के घेरे तोड़, गगन दहका देगा !
*
भीषण भावों के व्यक्त रूप मुद्राओं में
भर मृत्यु- राग उठते भैरव डमरू के स्वर
लिपि बद्ध कर सको भाषा में लक्षित-व्यंजित
तो समझो तुम तद्रूप हो गये अमर-अजर !
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1 टिप्पणी:

  1. बहुत बहुत खूबसूरत रचना है प्रतिभा जी..आनंद आ गया पढ़कर..''काल'' को कितना सुंदर लिखा है आपने........और सच कहूं तो अंत में थोड़ी सी लड़खड़ा भी गयी बुद्धि....मगर जितना समझ आया...वो बहुत अद्भुत ही था...कविता में कई जगह अजीब से भाव पाए उन्हें शब्दबद्ध नहीं कर पा रही हूँ......:(

    सत्य है काल से कोई नहीं जीत सका......

    ''धर दे निजत्व उसके आगे विरहित प्रमाद !
    प्रस्तुत कर दे रे महाकाल का महा- भोग
    तू भी है उसकी भेंट स्वयं बन जा प्रसाद !''

    ये तीन पंक्तियाँ विशेष रूप से मन को भायीं...कारण- कि भारतीय सेना पर एक विशेष श्रंखला देख रही हूँ discovery पर... ये पंक्तियाँ देख बिजली की तरह वे भारतीय सेना के जांबाज़ सैनिक आँखों के आगे घूम गए......फिर आगे की सारी कविता इन सबके इर्द गिर्द ही घूमती रही...स्वाद ही बदल गया था शब्दों का....फिर से पढ़ने आउंगी ...:(

    खैर आभार प्रतिभा जी इस ओजस्वी लेखन के लिए....:)

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