गुरुवार, 12 नवंबर 2009

शिव-विरह

उमँगता उर पितृ-गृह के नाम से ही !
तन पुलकता ,मन उमड़ आता !
जन्म का नाता !
सती ,आई हुलसती ,
तन पहुँचता बाद में
उस परम प्रिय आवास में
पहले पहुँच जाता उमड़ता- दौड़ता मन!
*
यज्ञ-थल पर आगमन !
देखते चुप पूज्यजन-परिजन
निमंत्रित अतिथि ,पुरजन- भीड़ !
नेत्र सब विस्मित !नहीं स्वागत कहीं
विद्रूप पूरित बेधती, चुभती हुई सी दृष्टि !
*
भाग शिव का नहीं ,कोई कह रहा ,
यह आ गई क्यों !
'यज्ञ में है कहाँ शिव का भाग ?'
'किसलिये ?कुलहीन , उस दुःशील का परिवार में क्या काम !
क्यों चली आई यहाँ लेने उसी का नाम ?'
उठीं जननी ,
'क्यों भला, उसका कहाँ है दोष ?'
'दोष उसका ही कि नाता जोड़ अपमानित किया ,
फिर माँगती है भाग ,दिखला रोष !'
*
घोर पति अवमानना ,
उपहास नयनों में सहोदर भगिनियों के.
और ऊपर से पिता के वचन ;
दहकी आग !
क्षुब्ध दाक्षायणि ,हृदय की ग्लानि ,बनती क्षोभ !
-क्यों ,चली आई यहाँ ?
लोक में अपमान सह कर जिऊँ ,
प्रियपति के लिये लज्जा बनी मैं ?
पति, जिसे आभास था -
'सती ,मत जा ! द्वेष है मुझसे उन्हें !
अपमान सहने वहाँ, मत जा !'
किन्तु मेरा हठ !
विवश हो कर दे दिये गण साथ !
दहकता मानस कि दोहरा ताप !
एक विचलन ले गई पत्नीत्व का अधिकार ,
जग गया फिर तीव्र हो पिछला मनःसंताप,
और अब यह अप्रत्याशित और तीखा वार !
स्वयं पर उठने लगी धिक्कार,
नहीं जीने का मुझे अधिकार !
*
विरह-दग्धा , शान्तिहीन सती भटक कर
चली आई थी यहाँ ,पुत्रीत्व का विश्वास पाले !
फटा जाता हृदय किस विधि से सँभाले !
इस पिता के अंश से निर्मित
विदूषित देह !
हर से मिलन अब संभव नहीं !
*
क्रोध पूरित स्वर 'पिता , बस,
अब बहुत ,आगे कुछ न कहना !
तुम न पाये जान शिव क्या ?
और दूषण दे उन्हें लांछित किया जो ,
उसी तन का अंश हूँ मैं !
लो ,कि ऐसी देह ,मैं अब त्यागती हूँ !'
*
लगा आसन शान्त हो मूँदे पलकदल ,
योग साधा, प्राण को कर ऊर्ध्व गामी
ब्रह्म-रंध्र कपाल तपता ज्योति सा !
और लो, अति तीव्र पुंज- प्रकाश
मस्तक से निकल कर अंतरिक्षों में समाया !
प्राण हीना देह भर भू पर !!
*
रुक गय़े सब मंत्र के उच्चार !
लुप्त कंठों से कि मंगलचार !
मच गया चहुँ ओर हाहकार ,
यज्ञ- भू को चीरते चीत्कार गूँजे !
नारियाँ रोदन मचाती !
धूममय मेघावरण छाया धरा पर !
विभ्रमित से दक्ष , नर औ' देव ऋषि स्तब्ध !
क्रोध भर चीखें उठाते भूत-प्रेत अपार !
दौड़ते विध्वंस करते
रौद्र- रस साकार, क्रोधित शंभु गण विकराल !
*
और क्षिति के मंच पर फिर हुआ दृष्यान्तर -
कामनाओं की भसम तन पर लपेटे ,
बादलों में उलझता गजपट लहरता,
घोर हालाहल समाये कंठ नीला ,
बिजलियों को रौंदते पल-पल पगों से ,
विकल संकुल चित्त, सारा भान भूला
गगन पथ से आ रहे शंकर !
*
मेघ टकराते ,सितारे टूट गिरते,
जटायें उड़-उड़ त्रिपथगा पर हहरतीं ,
वे विषैले नाग लहराते बिखरते
भयाकुल सृष्टा कि ज्वालायें न दहकें !
पौर-परिजन जहाँ जिसका सिर समाया !
यज्ञ-भू में ,दक्ष का लुढ़का पड़ा सिर
रुंड वेदी से छिटक कर ,
कुण्ड-तल में जा गिरा शोणित बहाता !
*
यज्ञ-हवि लोभी ,प्रताड़ित देव भागे ,
सुक्ख-भोगी स्वार्थी निष्क्रिय अभागे ,
कंदराओं में छिपे हतज्ञान कुंठित ,
दनुज- नर- किन्नर सभी हो त्रस्त विस्मित !
यज्ञ-भू में बह रही अब रक्तधारें ,
काँपते धरती- गगन बेबस दिशायें !
उड़ रहीं हैं मुक्त बिखरी वे जटायें ,
तप्त निश्वासें कि दावानल दहकते
कंठगत उच्छ्वास , ऐसा हो न जाये .
कहीं उफना कर कि तरलित गरल बिखरे !
मचाते विध्वंस शिवगण क्रोध भरभर ,
चीखते मिल प्रेत जैसे ध्वनित मारण- मंत्र !
रव से पूर्ण अंबर !
*
स्वयं की अवमानना से जो अविचलित ,
पर प्रिया का मान क्यों कर हुआ खंडित !
वियोगी योगी- हृदय की क्षुब्ध पीड़ा,
देखतीं सारी दिशायें नयन फाड़े !
*
मानहीना हो पिता से जहाँ पुत्री ,
उस परिधि में क्यों रहे स्थिर धरित्री ?
स्तब्ध हैं लाचार-सी सारी दिशायें ,
दनुज, नर भयभीत ,सारे नाग ,किन्नर !
कंठगत विष श्वास में घुलता निरंतर !
घूमते आते पवन-उन्चास हत हो लौटते फिर !
और अर्धांगी बिना,मैं अधूरा -सा ,रिक्त -सा ,अतिरिक्त सा
दिग्भ्रमित जैसे कि सब सुध-बुध बिसारे ,
देखते कुछ क्षण वही बेभान तन !
फिर भुजा से साध ,वह प्रिय देह काँधे पर सँवारे ,
हो उठे उन्मत्त प्रलयंकर !
प्रज्ज्वलित-से नयन विस्फारित भयंकर ,
वन- समुद्रों- पर्वतों के पार, बादल रौंदते ,
विद्युत- लताओं को मँझाते ,घूमते उन्मत्त से शंकर !
*
प्रिया की अंतर्व्यथा का बोध
रह-रह अश्रु भर जाता नयन में !
तप्त वे रुद्राक्ष झर जाते धरा पर !
पर्वतों- सागर- गगन में मत्त होकर घूमते शंकर !
छोड़ते उत्तप्त निश्वासें !
उफनते सागर कि धरती थरथराती ,
पर्वतों की रीढ़ रह-रह काँप जाती !
शून्यता के हर विवर को चीरती -सी
अंतरिक्षों में सघन अनुगूँज भरती !
*
कौन जो इस प्रेम-योगी को प्रबोधे ?
विरह की औघड़ -व्यथा को कौन शोधे ?
इस घड़ी में कौन आ सम्मुख खड़ा हो !
सृष्टि - हित जब प्रश्न बन पीछे पड़ा हो !
*
हो उठे अस्थिर रमापति सोच डूबे ,
तरल दृग की कोर से रह-रह निरखते,
किस तरह शिव से सती का गात छूटे !
किस तरह व्यामोह से हों मुक्त शंकर ?
किस तरह इस सृष्टि का संकट टले ,
कैसे पुनः हो शान्त यह नर्तन प्रलयकर !
*
दो चरण सुकुमार ,आलक्तक- सुरंजित , नूपुरोंयुत
विकल गति के साथ हिलते-झूलते
भस्म लिपटी कटि ,कि बाघंबर परसते !
चक्र दक्षिण तर्जनी पर
यों कि दे मृदु-परस वंदन कर रहे हों,
यों कि अति लाघव सहित
पग आ गिरें भू पर !
*
और क्रम-क्रम से -
कदलि जंघा ,कटि,
वलय कंकण मुद्रिका सज्जित सुकोमल कर अँगुलियाँ ,
पृष्ठ पर शिव के निरंतर झूलता हिलता
सती का शीश ,श्यामल केश से आच्छन्न !
वह सिन्दूर मंडित भाल !
कर्णिका मणि जटित जा छिटकी कहीं ,
मीलित कमल से नयन
जिह्वा ओष्ठ दंत,कपोल,नासा
विलग हों जैसे कि किसी विशाल तरु से पुष्प झर-झर !
और फिर अति सधा मंदाघात !
शंकर की भुजा में यत्न से धारित ,
हृदय से सिमटा कमर- काँधे तलक देवी सती का शेष तन
गिरा हर हर !
मंद झोंके से कि जैसे विरछ से
सहसा गिरे टूटी हुई शाखा धरा पर !
*
हाथ शिव का ढील पा कर
झटक झूला !
और चौंके शंभु हो हत-बुद्ध !
यह क्या घट गया ?
थम गया ताँडव ,रुके पग !
जग पड़े हों सपन से जैसे,
देखते चहुँ ओर भरमाये हुये से !
धूम्रपूरित बादलों में छिपी धरती ,
चक्रवाती पवन चारों ओर से अनुगूँज भरता !
कुछ नहीं ,कोई नहीं बस एक गहरी रिक्ति !
घूमता है सिर कि दुनिया घूमती है !
*
और औचक शंभु
देखते वह रिक्त कर ,अतिरिक्त
यह क्या ?
कहाँ प्रिया ?
मूढ़ और हताश से विस्मित
विभ्रमित ,जड़, कुछ,समझने के जतन में
स्तंभित खड़े हर !

प्रश्न केवल प्रश्न ,कोई नहीं उत्तर !
थकित ,भरमाये ठगे से शिव खड़े निस्संग !!
स्वप्न यह है ? या कि वह था ?
याद आता ही नहीं क्या हो गया !
चिह्न कोई भी नहीं
सपना कि सच था ?
मैं कहाँ था ? मैं कहाँ हूँ ?
नहीं कोई यहाँ !
किससे कहें ? जायें कहाँ ?
*
पार मेघों के हिमाच्छादित विपुल विस्तार !
लगा परिचित- सा बुलाता ,
समा लेगा जो कि बाहु पसार !
स्वयं में डूबे हुये से ,
श्लथ-भ्रमित से अस्त-व्यस्त ,विमूढ़ बेबस ,
पर्वतों के बीच विस्तृत शिला पर आसीन !
स्वयं को संयत किये मूँदे नयन !
अभ्यास वश अनयास ही
शिव हुये समाधि-विलीन !
*

बुधवार, 4 नवंबर 2009

एक और जन्म लेना होगा

*

हुआ राम जी का राज,छाए सभी सुख-साज,किन्तु सरयू की लहरों पे उदासी-सी छा गई 

उसाँस सी ले आगे बढ़ जाता ,और कनक-भवन की श्री-शोभा चली गई 

!मुख-सा छिपाए ,एक दूसरे से बचते से, तीनो भइयों के शीश झुके झुके जा रहे ,

सूनीसूनी आँखों जाग,काट देते सारी रात,मन ग्लानि लिए राजाराम राज किए जा रहे !

*
त्रस्त मौन माँडवी, श्रुतकीर्ति बिसूरती सी ,
क्षुब्ध उर्मिला को चैन जीवन में हो कहाँ ,
उठा भावावेग और टूटा धीरज का बाँध ,
व्याकुल हो रानी ने लक्ष्मण से यों कहा -
'चौदह बरस को चले त्याग मुझको तब मै मुख से न बोली ,
भाई न कुण्ठित हों ,अब छोड़ आए हो भाभी को वन मे अकेली !
पहले जलाई थी अग्नि परीक्षा की , तुमको भी लज्जा न आई ?
वचनों के पक्के हैं रघुकुल मे सारे, लेकिन थी सीता पराई !
गुरु, देवता, पुरजनों-परिजनो बीच अगनी की साक्षी शपथ लो ,
फिर जब भी चाहो तो अपनी ही ब्याही से पल भर में पल्ला झटक लो !
ऊपर से उनकी दशा ! तुम पुरुषजन, क्या जानो पीड़ा गरभ की ,
दासी न दाई ,न शैया न छाजन ,भोजन न दीपक न बाती !

कैसे सहेगी किससे कहेगी ना कोई संगी-सहेली !
भाई का नाता निबाहे को, भाभी को छोड़ा विजन मे अकेली ! 


'मेरा हिया फट गया क्यों न रानी ,अब मैं किसे मुँह दिखाऊँ ,
भाभी को मैंने ही छोड़ा वनों में ,पलभर न मैं चैन पाऊँ !
चाकर हूँ, मैं क्या करूँ उर्मिला ,बात भैया की भैया ही जाने ,
क्या बीतती है किसी के हृदय पर इसे कोई जाने न माने !"
*
' जीजी ने तो साथ पूरा निभाया ,वन-वन विपतियाँ सहीं रे ,
राजा हुए और सच को न परखा ,कानों धरी बतकही रे !
जस हो या अपजस ,सुख हो भले दुख ,वन में रहे या भवन में ,
सीता की पत रख सके वो ही ब्याहे, थी आन बाबा के पन में !
राजा की जयकार बोली सभी ने, कल ना पड़े मेरे जी को ,
कैसे कहूँ किस दशा में हैं बहिना सपने में देखा उन्ही को !"
*
' रथ की थकन झेल पाईं न भाभी , मूर्छित हुई क्षीण काया ,
छाया बिरछ की धरा पात में जल, मुँह से न मैं बोल पाया !
चुप-चुप रहीं देखती अनमनी एक निर्लिप्त सी भंगिमा में ,
संबंध सारे परे रह गए और कुछ भी नहीं रह गया मैं !
*
'कह दो लला से मुझे छोड़ आएँ ,बारी तुम्हारी भवन की ,
तुमने दिखाया वही पथ चलूँ अनुसरी बन जिठानी- बहन की !'
*
'भाभी की बहिना का पद है तुम्हारा ,मुझसे बड़ा और भारी ,
मस्तक झुकाए खड़ा हूँ प्रिये ,बात अनुचित नहीं कुछ तुम्हारी !
मुझको क्षमा कर सको तो मुझे भी चाकर बना ले चलो तुम ,
सुख तो सपन हो गए उर्मिले , साथ संताप ही भोग लें हम !'
*****
आगईं याद कल कान पड़ी वे बातें ,
जब लौट रहे थे लक्ष्मण धीरे-धीरे ,
कुछ तीखे स्वर वातायन से आए थे
आक्रोश दुःख से आधे और अधूरे --
'सहधर्मी थे वे स्वयं राम वन जाते ,शान्ता के पास धरोहर ही धर आते ,
यों तो धरती राक्षसहीना कहते अब ,तीनों भाई क्या राज सम्हाल न पाते ?'
*
फिर मझली माँ-' री मरी मन्थरा,चुप रह,कुछ कहने का अधिकार खो दिया हमने ,'
अन्तर की उमड़न हुई कंठगत आकर ,लक्ष्मण ठिठके से खड़े रहे संभ्रम में !
'रावण तो हारा था वैदेही से ही , फिर जीत कहाँ थी उसके लिए भुवन में ,
कुल- पुरुष कुलवधू गर्भ- सहित यों त्यागे..'- कैकेयी के स्वर डूबे से चिन्तन में -- 
'सीता तेजस्वी थी वह जीत गई थी ,कोई निरीह नारी होती , क्या होता ?
रक्षा की जगह लाञ्छना दे यदि पति भी , बैरी समाज फिर उसे न जीने देता !'
*
'तुम बुद्धिमती पड़ती ही गईं अकेली ,' मन्थरा मुखर फिर तीव्र स्वरों में बोली -

'आदर्श लोक को राम दिखाने आए ,मर्यादाओं का पाठ पढ़ाने आए...’
'मंथरा मुझे दुख है कि सभी यों चुप हैं ,कुल की गौरव गाथा कैसे विकसेगी ,
वह नहीं मात्र छायानुवाद है उनका , मैथिली यहाँ अब कभी नहीं लौटेगी !'
****** 
लक्ष्मण की रानी ने चर को पठाया लाओ बहन का सँदेश ,
कोई समाचार आकर सुना दे काटे हिया का कलेश !
*
पत्तों पे लिख दी थी पाती सिया ने, तृण की बना लेखनी ,
आँसू भरे चर ने माथे चढ़ाई मन में व्यथा थी घनी !
' मै जहाँ भी रही कुछ अघट घट गया ,जन्म से ही शुरू हो गई यह कथा ,
जन्म देकर जननि ही जिसे त्याग दे ,उर्मिले , कौन समझेगा उसकी व्यथा ?
सामने क्यों स्वयं राम आए नहीं ,कौन बाधा रही सोच मुझको यही ,
ज़िन्दगी में विषम योग झेले सदा किन्तु दुर्बल मना जानकी कब रही ?
*
' पुत्र मेरे प्रतापी बनेगे तभी ,जब कि उन पर न छाया यहाँ की पड़े ,
घोर मर्याद कुण्ठित न कर दे कहीं ,मुक्त व्यवहार में पुत्र मेरे बढ़ें !
*
' ये गहन वन उगे सिर्फ़ मेरे लिए , आप अपने से पहचान अब हो गई ,
उस हताशा से उबरी .ये ऋषि की कृपा ,मैं स्वयंसिद्ध सी निस्पृहा हो गई !'
***
क्रौंञ्ची की विषम व्यथा से जो विगलित था ,
बन गया सिया की मर्म-कथा का साक्षी ,
जो व्याकुल हो छन्दों मे फूट पड़ा था ,
वह आदिकाव्य था अंतस् की करुणा थी !


स्वर मुखर हो उठे उस दारुण मन्थन में
आविष्ट महाऋषि खड़े होगए वन में -- 
*
'मैं वाल्मीकि,कवि कह लो चाहे दृष्टा ,
आकाश ,धरा सब रहें दिशाएँ साक्षी ,
मैं दोनों दोनों हाथ उठाकर जो कहता हूँ ,
ओ राम सुनो ,सब सुने अयोध्यावासी --
*
' जन कुत्सा-विचलित राम पितृत्व निभा न सके ,
पर सीता का मातृत्व किसी से बाध्य नहीं !
अब अगर राम चाहें भी , नहीं फिरेगी वह !
विश्वास-सत्य होते प्रमाण सापेक्ष नहीं १
*
'अस्मिता जब कि खो बैठे राम स्वयं अपनी ,
बाधित संकल्प नहीं पाते जगती में जय ,
धारक अक्षम पा शक्ति धरा में समा गई,
 तो फिर तो होना ही है क्षय ,बस क्षय ही क्षय !

*

'मानवी-प्रेम का जो उपहास किया तुमने ,
कन्दुक-सा खेले सारी मर्यादा तज कर ,
अब चन्द्र नखा का शाप फलित होना ही है ,
हर त्यक्ता अनुरक्ता नारी को अपना कर !


',राम ,तुम्हें अब प्रायश्चित करना होगा ,
फिर और किसी युग में मानव का तन धरकर ,
कुब्जा हो, रूपमती हो, ब्याही हो चाहे अनब्याही हो,
 हर प्रेम -निवेदन रक्खोगे सिर-आँखों पर !

*
अब सिर्फ़ ग्लानि है क्यों कि हार बैठे तुम ही ,
वह सत्य-नीति की कथा तुम्हारी नहीं रही ,
अविचल वैदेही जीतेगी हर बार यहाँ ,
सुन लो कि राम अब विजय तुम्हारी नहीं रही !
*
' नारी को देगा लाञ्छन और वञ्चना ही

यह देश अभागा, कथा तुम्हारी गा-गा कर ,
जगती मे अपना शीष उठाएगा कैसे ?
निःसत्व जाति क्या जीत सकी है कभी समर ?
*
'अपना व्यक्तित्व माँज कर चमकाना होगा ,
फिर से जीवन के कटु यथार्थ मे घिस-घिस कर ,
एक और जन्म लेना होगा ओ,राम ,तुम्हे ,
जन-जन को पूर्णावतार दिखाने इस भू पर !'
*
रह गए न राम कथा-नायक ,आगे था उत्तर-रामचरित ,
फिर धरती में ही समा गई वह उज्ज्वलता त्रैलोक्य-विश्रुत !

*****






dance-drama - जयभारत

जय भारत जय हिन्दुस्तान-
(पृष्ठ-भूमि मे भारत का नक़शा -कुर्ता पैजामा और टोपी पहने एक ओर से वाचक का प्रवेश ,दूसरी ओर से वाचिका का )
वाचक-
विविध भिन्नताओं को पाले भारत -माँ का हृदय विशाल ,
श्रद्धा-ज्ञान-प्रेम की धरती कुदरत की बेजोड मिसाल !
भिन्न-भिन्न देशों से आये द्रविड ,आर्य शक औ' मंगोल,
हिलमिल कर सब रहे यहाँ पर ,जिसका साक्षी है भूगोल !

वाचिका -
कितना आगे बढ आये हम अब वह सब केवल इतिहास ,
आज विषमताओं ने छीना जीवन का सारा उल्लास !
तोड गुलामी की जंजीरें ,देख रहे थे सुख के स्वप्न ,
लेकिन सीमित स्वार्थ भावना ने कर दिया सभी कुछ भग्न !

वाचक-
सुनो दर्शकों ,व्यथा हमारी ,देखो आज हमारा हाल ,
स्वतंत्रता ही जहाँ बन गई एक सवाल ,एक जंजाल !
भाषा -संप्रदाय -सूबों को लेकर ये संकीर्ण विचार ,
राष्ट्र हमारा कहाँ जा रहा ,क्या होगा इसका उपचार ?

(एक ओर से अकाली जोड़े का प्रवेश,संगीत के स्वर रौद्र रस से भर उठते हैं ! अकाली जोड़ा नृत्य की मुद्रा में आगे आता है ।)

अकाली जोड़ा -
एक अकाली सवा लाख है लडकर लेंगे खालिस्तान,
फिर से करो देश के हिस्से उन्हें दिया जब पाकिस्तान !
हम सिक्खों की अलग कौम है,नेता अलग ,अलग सब चाल,
बम फोडें गोले बरसायें रूप धरेंगे हम विकराल !
हिन्दू भागो,मुस्लिम भागो ,भागो जैन और क्रिस्तान ,
नहीं किसी को रहने देंगे अलग करेंगे खालिस्तान !
(वे एक ओर जाकर खड़े हो जाते हैं,पृष्ठभूमि से एक बंगाली जोडा आता है,,संगीत के स्वर तदनुरूप परिवरितित हो जाते हैं।)
बंगाली जोड़ा -
है आमार शोनार बाँगला ,कान खोल कर सुन लो माँग ,
और नहीं तो ले डालेंगे सबका चैन और आराम ऍ
भाषा औ' साहित्य,कला सभ ही मे हमने किया कमाल ,
दबी क्रान्ति की यह चिन्गारी बन जायेगी लपट कराल !
हमको दो बंगाल कि जिसमे नहीं शान्ति पर आये आँच,
विधि-विधान औ' तंत्र भिन्न हो ,या फिर होगा ताण्डव नाच !
(आसामी जोड़े का प्रवेश ,संगीत मे तदनुरूप परिवर्तन )
आसामी जोड़ा -
शान्त रहो ,शान्त रहो आसाम हमारा ,हम आसमी भी खुदमुख्त्यार ,
तेल हमारा ,जूट हमारा ,अलग हमारा हो संसार !
भाषा-भूषा भिन्न हमारी ,और पराये हैं सब लोग ,
दिल्ली तक लपटें पहुँचेंगी ,नहीं सकेगा कोई रोक !
यह वर्षा का प्रान्त ,वनो की भूमि ,प्रकृति का सिन्दर वेस ,
मार-काट मच जायेगी ,यदि यहाँ किसी ने किया निवेश !
(कश्मीरी जोडे का प्रवेश )
कश्मीरी जोडा - हम कश्मीर ,स्वर्ग धरती के ,नरक शेष यह हिन्दुस्तान ,
हमको घृणा हिन्दवालों से ,हमको दिल्ली से क्या काम ?
अलग रेडिओ विभि-विभान सब ,नाचेंगे सिर पर चढ नाच ,
ढपली अपनी अलग बजेगी ,अलग उठेगा अपना राग !
ये केशर ,ये गाते झरने ,नीली झीलें हँसते फूल ,
ये चिनार झेलम की धारा ,तुम जाओ इन सबको भूल !
(गुजराती जोड़े का प्रवेश )
गुजराती जोड़ा -
 हम गुजराती ,सागर तट पर सूरत और काठियावाड ,
दूर-दूर तक प्रान्त हमारा ,बाकी भारत कूड-कबाड !
ये समृद्धि की भूमि सदा से पाती आई है सम्मान ,
विश्व-पूज्य बापू जन्मे थे इसका हमको है अभिमान !
ये भाषा ,ये भूषा ये संस्कृति, प्राचीना और महान्
अलग रहेगी अपनी हस्ती ,अलग उठेगी अपनी तान !
(महाराष्ट्री जोडे का प्रवेश )
महाराष्ट्री जोड़ा -
महाराष्ट्र की महत् कल्पना हमको करनी है साकार ,
अपना हक लेकर छोडेंगे ,मचे भले ही हा हा कार !
अपनी भाषा रहे मराठी ,अमच्या-तुमच्या मीठे बोल
,हम हो जायें अलग भले सब बिक जाये मिट्टी के मोल !
(मद्रासी जोड़े का प्रवेश )
मद्रासी जोड़ा -
 हम हैं तमिल ,तेलुगूभाषी हमसे करना तीन न पाँच ,
हम जो ताव खा गये तो उत्तर तर पहुँच जायगी आँच !
दक्षिण ने विद्रोह किया तो नहीं बचेगा कोई द्वार ,
कान खोल कर सुनो ,इन्दिरा अलग हमारी हो सरकार !
हिन्दीवालों भागो ,तुमसे नफरत करते हैं हमलोग ,
अंग्रेजी को सिर-माथे धर,पा लेंगे पूरा सन्तोष !
मुसल्मानी जोड़ा -
नजर उठाकर देखो ,तुमने ढाये हम पर कितने जुल्म ,
अपने हों कानून अलहदा ,मजहब अलग ,अलग हो इल्म ,
उर्दू को पूरा दर्जा दो ,सुविधाओं को और बढाओ ,
सब सूबों की नौकरियों मे हमे अलग से कोटा लाओ !
अगर किसी ने बहस बढाई ,होंगे दंगे और फसाद ,
परे हटो ,सिमटो तुम सब ,हम होंगे सारे मे आबाद !

(सभी प्रान्तों के जोड़े अर्दचन्द्राकार ,पृष्ठभूमि मे खडे हैं वाचक-वाचिका पुनः आगे आते हैं )
वाचक-मजहब की दीवार खडी कर नफरत फैलाते हैं लोग ,

अपनी जुबाँ थोप औरों पर झगडे करवाते हैं लोग !
इन्हें अलग कानून चाहिये ,उन्हे चाहिये सबमे छूट ,
आगजनी और तोड-फोड कर नफरत फैलाते हैं लोग !
वाचिका -
पनप रहे हैं ऐसे द्रोही और प्रबुद्धजन हैं चुपचाप ,
अन्यायों का साक्षी बन कर चुप रह जाना भी है पाप !
वाचक -सुन लीं ये सारी आवाजें ,इनको सन्मति दो हे राम ,
जब तक एक न होंगे हम आराम रहेगा ,हमे हराम !
(प्रश्नवाचक मुद्रा मे )
अच्छा भारत से हिस्सा कर दे दें इनको खालिस्तान ?
सब-नहीं,नहीं ,!नहीं, नहीं ,पंजाब हमारा ,भारत का गौरव औ' शान
इसको छोड न रह पायेगा अफनी माता का सम्मान !
अच्छा बोलो भारतवालों ,भारत पृथक करे आसाम ?
आवाजें-नहीं,नहीं वह हृदय हमारा ,हर धडकन मे अपने साथ ,
ऐसी बात सोचना भी है माँ के प्रति भीषण अपराध !
तो ,कश्मीर अलग हो जाये ,तोडे भारत से संबंध ?
सब -नहीं,नहीं वह स्वर्ग हमारा ,जिसको पाकर हम सब धन्य !
उसकी इञ्च-इञ्च धरती पर बलि कर देंगे सौ-सौ जन्म !
प्रश्न-तो फिर दक्षिण के प्रान्तों को बाकी धरती से दें काट ?
सब-नहीं,नहीं ,भारत के आधारमद्र केरल औ' आँन्ध्र ,न दो यह शाप !
अब न चलेगी इस धरती पर द्रोह भरी ये बंदर-बाँट!
वाचक -
चिन्गारी कश्मीर न सुलगा ,जल मत ओ प्यारे आसाम ,
हम सब इस माटी की रचना भारतमाता की सन्तान !
बोली अलग-अलग है तो क्या ,साध्य एक ही अपना देश ,
प्राण रहेंगे भारत के ही भले अलग हो अपना वेश !
वाचिका -
भारत की चिन्ताधारा ने दियासमन्वय का सन्देस,
यही भिन्नता करे पूर्णतर मानव संस्कृति का परिवेश !
मतान्तरों का मुक्त गगन हो ,नहीं उठे मन मे दीवार ,
पृथक् धर्म ,अनगिन भाषायें करें मनुजता का शृंगार

वाचक -
 एक रहे गुजरात, बंग,कश्मीर ,मद्र ,केरल ,आसाम ,
आओ हम सब मिल कर बोलें -'जय भारत,जय हिन्दुस्तान !'
*

मंगलवार, 3 नवंबर 2009

झेलम का पत्र

*
झेलम ने पत्र लिखा कावेरी को -
'बहना !
सौभाग्यवती चिर रहो ,तुम्हें मेरा दुलार ,
सब बहनों को हिमवान पिता का शुभाशीष !
कावेरी बहना ,बड़ी याद आती तेरी ,
मेरी सुख-दुख की समभागिन ,मन के समीप ।'
*
अंतर में छलकी व्यथा हुईं व्याकुल लहरें , काँपे चिनार ।
'संयम रख बहिन ,' सिन्धु बोली !
संयत हो झेलम बढ़ी -
' यहाँ का सुनो हाल -
लिख जाऊँगी सब आज तुम्हें अपनी बातें ।
मन उखड़ा-सा रहता ,कुछ समझ नहीं आता ,
कटती ही नहीं यहाँ अवसाद भरी रातें ।
रावी - सतलज ने अपनी शान्ति गँवा दी है
बहना यमुना पर घनी उदासी छाई है !
गंगा का पावन हास छिन गया हो जैसे ,
कैसी उजाड़ , विषभरी हवायें आई हैं ।
खाता पछाड़ पागल सा ब्रह्मपुत्र भ्राता ,
ये भइया शोण, बिलखता तट से टकराता !
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‘कावेरी ,खुला पत्र यह तेरे नाम लिखा ,
नर्मदा ,ताप्ती ,कृष्णा को पढ़वा देना !
उत्तर को जो सौंपा था छिना जा रहा है ,
गोदावरि की लहरों को समझा कर कहना !
विन्ध्या से कहना स्थिति पर कर ले विचार ,
पश्चिमी घाट तक पहुँचा देना आमंत्रण ,
उत्तर पूरव को ख़ुद कह आयेगी गंगा,
गारो ,खासी ,पटकोई तक कुछ बढ़ा कदम !’
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फिर कलम रुकी ,झेलम ने ठंडी साँस भरी ,
होकर उदास सोचने लगी क्या लिखूँ उन्हें !
पूछा चिनाब से हाल ,सिंधु से ली सलाह !
लहरों की तरल वर्णमाला फिर उभर चली !
आगे झेलम ने लिखा -

' हम सबने जिसको जीवन-जल से सींचा था ,
विष-वृक्ष उगे आते हैं उस प्रिय धरती पर ,
आतंक मेघ- सा घहराता आकाशों में
हत्बुद्धि खडे हैं तट के सारे ग्राम - नगर !
वे धर्म,प्रान्त ,भाषा की पट्टी पढ़ा-पढ़ा ,
सदियों के दृढ़ संबंध तोड़ने को तत्पर ,
उत्थान-पतन जाने कितने देखे अब तक ,
पर नहीं सुना था कभी यहाँ विघटन का स्वर !

' बहना ,जुम्मेदारी तो अपनी सबकी है ,
तुम पर भी संकट ,ऐसा है अब भान मुझे ,
लग रहा सदा को डूब गये वे स्वर्ण प्रहर !
बहना ,चिट्ठी का शीघ्र – शीघ्र देना उत्तर !'
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 कावेरी का उत्तर -
संदेश मिला, झेलम के सारे हाल पढ़े,
गिरनार-अरावलि उठे विंध्य की ओर बढ़े ,
पूरवी -पश्चिमी घाट खिसक आये आगे ,
उत्सुकता से नागा पर्वत के कान खड़े !
आश्वस्त रहे झेलम, उत्तर देने अपना ,
कावेरी ने लहरों की लिपि में शुरू किया --

'झेलम, हम सबका राम-राम !
गुरुजन असीसते, छोटे सब कहते प्रणाम !

'झेलम, धीरज धारो हम सब हैं साथ-साथ !
संतप्त यहाँ हम भी ,चिन्ताओं से व्याकुल ,
लेकिन आशा-विश्वासों का है कुछ संबल !
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'ताँडव होता विद्वेषों अतिचारों का जब-जब
परिहार हेतु अवतरित हुआ कोई तब-तब !
ऐसा फिर होगा आने तक वह बिन्दु- चरम
फिर से पलटेंगे अच्छे दिन अपने, झेलम !'

'कोरी सांत्वना उसे मत दे, री कावेरी ,'
'जब कटु यथार्थ सामने खड़ा '
 कृष्णा लहरी,
गिरनारनार -नीलगिरि एक साथ ही बोल पड़े,
कुछ ताप हृदय में, उमड़ा स्वर हो गये कड़े -
' मत गा बहना ,वे गाथायें जो बीत गई ,
इस वर्तमान में कैसे उबरें प्रश्न यही !'

कावेरी ने स्वीकारा औ' रुक गई कलम !
' क्या उत्तर दें ? देखती बाट होगी झेलम !'
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कुछ बातें कही गईं ,कुछ तर्क-वितर्क हुये
विश्लेषण हुआ समस्या का
सहमति से निर्णय लिये गये !
लहरों की तरल वर्णमाला फिर उभर चली -

' जिस संकट ने चहुँ ओर हमें आ घेरा है ,
वैसा न हुआ था इतनी बीती सदियों में !
सूखे पहाड़ से तन ,छिनती सी हरियाली ,
छाया विषाद पर्वत-पर्वत में नदियों में !
इस दुनियाँ में सबको अपनी-अपनी चिन्ता ,
अपना हित ही है रीति-नीति और प्रीत यहाँ ,
आदर्शों का बोझा लादा किसकी ख़ातिर ,
भोंकते पीठ में छुरा कि बन कर मीत जहां ?

जब निहित स्वार्थवश तुष्टीकरण नीति पर चल ,
पिछली भूलों से सबक न लें , कर्ता-धर्ता ,
जब लोक-तंत्र भी भेद-भाव का हो शिकार ,
सिर धरे जायँ जन के अधिकारों के हर्ता !
बहु और अल्प-संख्यक में बाँट दिया इनने
आस्था -धर्म को,राजनीति की गेंद बना ,
निरपेक्ष कहाते सुविधायें -दुविधायें दे ,
आगे भविष्य किस तरह करेगा इन्हें क्षमा !
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'कुछ पले हुये हैं यहाँ साँप आस्तीनों में ,
जो उगल- उगल कर ज़हर काढ़ते रहते फन !
कुछ ऐसे हैं निर्लज्ज परायों के पिट्ठू ,
' वे मातृभूमि- द्रोही , वे संस्कृति के दुश्मन !
धर हाथ हाथ पर देख रहे जन घर में ही होता अनर्थ ,
तो फिर मानव जीवन का क्या रह गया अर्थ?
'
जिसके हाथों में डंडा वही हाँक लेता ,
यह तंत्र ,कि रह जाता है लोक तमाशबीन ,
' यह संधिकाल ,इस समय अगर चेता न देश ,
तो छिन्न-भिन्न हो बिखर जाय , हो ये न कहीं ,
यह कहते भग्न हृदय,
लेकिन अपराध- बोध चुप रहने में
अंतर की व्यथा बहिन ,अब जाती नहीं सही !
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'अब आगे बढ़ झकझोर जगाना है हम को
तटवासी ग्राम नगर की तोड़ नींद ,कह दो -

' तुम न्याय-नीति के लिये लड़ो निर्भय हो कर'
'ना दैन्य ,पलायन नहीं' , चित्त को स्थिर कर !'
यह महावाक्य अब बने यहाँ जीवन-दर्शन !
फिर नई चेतना से भर जाग उठे जन जन !
' अपनी अस्मिता ,न्याय को ले,
अंतिम क्षण तक लड़ना वरेण्य,
सारथी और गुरु नारायण,
संग्राम पार्थ का ही करेण्य !'
नगराज पूज्य को नत-शिर हम सबका वंदन !
थोड़े लिक्खे से बहुत समझना ,प्रिय झेलम !'
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