तन पुलकता ,मन उमड़ आता !
जन्म का नाता !
सती ,आई हुलसती ,
तन पहुँचता बाद में
उस परम प्रिय आवास में
पहले पहुँच जाता उमड़ता- दौड़ता मन!
*
यज्ञ-थल पर आगमन !
देखते चुप पूज्यजन-परिजन
निमंत्रित अतिथि ,पुरजन- भीड़ !
नेत्र सब विस्मित !नहीं स्वागत कहीं
विद्रूप पूरित बेधती, चुभती हुई सी दृष्टि !
*
भाग शिव का नहीं ,कोई कह रहा ,
यह आ गई क्यों !
'यज्ञ में है कहाँ शिव का भाग ?'
'किसलिये ?कुलहीन , उस दुःशील का परिवार में क्या काम !
क्यों चली आई यहाँ लेने उसी का नाम ?'
उठीं जननी ,
'क्यों भला, उसका कहाँ है दोष ?'
'दोष उसका ही कि नाता जोड़ अपमानित किया ,
फिर माँगती है भाग ,दिखला रोष !'
*
घोर पति अवमानना ,
उपहास नयनों में सहोदर भगिनियों के.
और ऊपर से पिता के वचन ;
दहकी आग !
क्षुब्ध दाक्षायणि ,हृदय की ग्लानि ,बनती क्षोभ !
-क्यों ,चली आई यहाँ ?
लोक में अपमान सह कर जिऊँ ,
प्रियपति के लिये लज्जा बनी मैं ?
पति, जिसे आभास था -
'सती ,मत जा ! द्वेष है मुझसे उन्हें !
अपमान सहने वहाँ, मत जा !'
किन्तु मेरा हठ !
विवश हो कर दे दिये गण साथ !
दहकता मानस कि दोहरा ताप !
एक विचलन ले गई पत्नीत्व का अधिकार ,
जग गया फिर तीव्र हो पिछला मनःसंताप,
और अब यह अप्रत्याशित और तीखा वार !
स्वयं पर उठने लगी धिक्कार,
नहीं जीने का मुझे अधिकार !
*
विरह-दग्धा , शान्तिहीन सती भटक कर
चली आई थी यहाँ ,पुत्रीत्व का विश्वास पाले !
फटा जाता हृदय किस विधि से सँभाले !
इस पिता के अंश से निर्मित
विदूषित देह !
हर से मिलन अब संभव नहीं !
*
क्रोध पूरित स्वर 'पिता , बस,
अब बहुत ,आगे कुछ न कहना !
तुम न पाये जान शिव क्या ?
और दूषण दे उन्हें लांछित किया जो ,
उसी तन का अंश हूँ मैं !
लो ,कि ऐसी देह ,मैं अब त्यागती हूँ !'
*
लगा आसन शान्त हो मूँदे पलकदल ,
योग साधा, प्राण को कर ऊर्ध्व गामी
ब्रह्म-रंध्र कपाल तपता ज्योति सा !
और लो, अति तीव्र पुंज- प्रकाश
मस्तक से निकल कर अंतरिक्षों में समाया !
प्राण हीना देह भर भू पर !!
*
रुक गय़े सब मंत्र के उच्चार !
लुप्त कंठों से कि मंगलचार !
मच गया चहुँ ओर हाहकार ,
यज्ञ- भू को चीरते चीत्कार गूँजे !
नारियाँ रोदन मचाती !
धूममय मेघावरण छाया धरा पर !
विभ्रमित से दक्ष , नर औ' देव ऋषि स्तब्ध !
क्रोध भर चीखें उठाते भूत-प्रेत अपार !
दौड़ते विध्वंस करते
रौद्र- रस साकार, क्रोधित शंभु गण विकराल !
*
और क्षिति के मंच पर फिर हुआ दृष्यान्तर -
कामनाओं की भसम तन पर लपेटे ,
बादलों में उलझता गजपट लहरता,
घोर हालाहल समाये कंठ नीला ,
बिजलियों को रौंदते पल-पल पगों से ,
विकल संकुल चित्त, सारा भान भूला
गगन पथ से आ रहे शंकर !
*
मेघ टकराते ,सितारे टूट गिरते,
जटायें उड़-उड़ त्रिपथगा पर हहरतीं ,
वे विषैले नाग लहराते बिखरते
भयाकुल सृष्टा कि ज्वालायें न दहकें !
पौर-परिजन जहाँ जिसका सिर समाया !
यज्ञ-भू में ,दक्ष का लुढ़का पड़ा सिर
रुंड वेदी से छिटक कर ,
कुण्ड-तल में जा गिरा शोणित बहाता !
*
यज्ञ-हवि लोभी ,प्रताड़ित देव भागे ,
सुक्ख-भोगी स्वार्थी निष्क्रिय अभागे ,
कंदराओं में छिपे हतज्ञान कुंठित ,
दनुज- नर- किन्नर सभी हो त्रस्त विस्मित !
यज्ञ-भू में बह रही अब रक्तधारें ,
काँपते धरती- गगन बेबस दिशायें !
उड़ रहीं हैं मुक्त बिखरी वे जटायें ,
तप्त निश्वासें कि दावानल दहकते
कंठगत उच्छ्वास , ऐसा हो न जाये .
कहीं उफना कर कि तरलित गरल बिखरे !
मचाते विध्वंस शिवगण क्रोध भरभर ,
चीखते मिल प्रेत जैसे ध्वनित मारण- मंत्र !
रव से पूर्ण अंबर !
*
स्वयं की अवमानना से जो अविचलित ,
पर प्रिया का मान क्यों कर हुआ खंडित !
वियोगी योगी- हृदय की क्षुब्ध पीड़ा,
देखतीं सारी दिशायें नयन फाड़े !
*
मानहीना हो पिता से जहाँ पुत्री ,
उस परिधि में क्यों रहे स्थिर धरित्री ?
स्तब्ध हैं लाचार-सी सारी दिशायें ,
दनुज, नर भयभीत ,सारे नाग ,किन्नर !
कंठगत विष श्वास में घुलता निरंतर !
घूमते आते पवन-उन्चास हत हो लौटते फिर !
और अर्धांगी बिना,मैं अधूरा -सा ,रिक्त -सा ,अतिरिक्त सा
दिग्भ्रमित जैसे कि सब सुध-बुध बिसारे ,
देखते कुछ क्षण वही बेभान तन !
फिर भुजा से साध ,वह प्रिय देह काँधे पर सँवारे ,
हो उठे उन्मत्त प्रलयंकर !
प्रज्ज्वलित-से नयन विस्फारित भयंकर ,
वन- समुद्रों- पर्वतों के पार, बादल रौंदते ,
विद्युत- लताओं को मँझाते ,घूमते उन्मत्त से शंकर !
*
प्रिया की अंतर्व्यथा का बोध
रह-रह अश्रु भर जाता नयन में !
तप्त वे रुद्राक्ष झर जाते धरा पर !
पर्वतों- सागर- गगन में मत्त होकर घूमते शंकर !
छोड़ते उत्तप्त निश्वासें !
उफनते सागर कि धरती थरथराती ,
पर्वतों की रीढ़ रह-रह काँप जाती !
शून्यता के हर विवर को चीरती -सी
अंतरिक्षों में सघन अनुगूँज भरती !
*
कौन जो इस प्रेम-योगी को प्रबोधे ?
विरह की औघड़ -व्यथा को कौन शोधे ?
इस घड़ी में कौन आ सम्मुख खड़ा हो !
सृष्टि - हित जब प्रश्न बन पीछे पड़ा हो !
*
हो उठे अस्थिर रमापति सोच डूबे ,
तरल दृग की कोर से रह-रह निरखते,
किस तरह शिव से सती का गात छूटे !
किस तरह व्यामोह से हों मुक्त शंकर ?
किस तरह इस सृष्टि का संकट टले ,
कैसे पुनः हो शान्त यह नर्तन प्रलयकर !
*
दो चरण सुकुमार ,आलक्तक- सुरंजित , नूपुरोंयुत
विकल गति के साथ हिलते-झूलते
भस्म लिपटी कटि ,कि बाघंबर परसते !
चक्र दक्षिण तर्जनी पर
यों कि दे मृदु-परस वंदन कर रहे हों,
यों कि अति लाघव सहित
पग आ गिरें भू पर !
*
और क्रम-क्रम से -
कदलि जंघा ,कटि,
वलय कंकण मुद्रिका सज्जित सुकोमल कर अँगुलियाँ ,
पृष्ठ पर शिव के निरंतर झूलता हिलता
सती का शीश ,श्यामल केश से आच्छन्न !
वह सिन्दूर मंडित भाल !
कर्णिका मणि जटित जा छिटकी कहीं ,
मीलित कमल से नयन
जिह्वा ओष्ठ दंत,कपोल,नासा
विलग हों जैसे कि किसी विशाल तरु से पुष्प झर-झर !
और फिर अति सधा मंदाघात !
शंकर की भुजा में यत्न से धारित ,
हृदय से सिमटा कमर- काँधे तलक देवी सती का शेष तन
गिरा हर हर !
मंद झोंके से कि जैसे विरछ से
सहसा गिरे टूटी हुई शाखा धरा पर !
*
हाथ शिव का ढील पा कर
झटक झूला !
और चौंके शंभु हो हत-बुद्ध !
यह क्या घट गया ?
थम गया ताँडव ,रुके पग !
जग पड़े हों सपन से जैसे,
देखते चहुँ ओर भरमाये हुये से !
धूम्रपूरित बादलों में छिपी धरती ,
चक्रवाती पवन चारों ओर से अनुगूँज भरता !
कुछ नहीं ,कोई नहीं बस एक गहरी रिक्ति !
घूमता है सिर कि दुनिया घूमती है !
*
और औचक शंभु
देखते वह रिक्त कर ,अतिरिक्त
यह क्या ?
कहाँ प्रिया ?
मूढ़ और हताश से विस्मित
विभ्रमित ,जड़, कुछ,समझने के जतन में
स्तंभित खड़े हर !
प्रश्न केवल प्रश्न ,कोई नहीं उत्तर !
थकित ,भरमाये ठगे से शिव खड़े निस्संग !!
स्वप्न यह है ? या कि वह था ?
याद आता ही नहीं क्या हो गया !
चिह्न कोई भी नहीं
सपना कि सच था ?
मैं कहाँ था ? मैं कहाँ हूँ ?
नहीं कोई यहाँ !
किससे कहें ? जायें कहाँ ?
*
पार मेघों के हिमाच्छादित विपुल विस्तार !
लगा परिचित- सा बुलाता ,
समा लेगा जो कि बाहु पसार !
स्वयं में डूबे हुये से ,
श्लथ-भ्रमित से अस्त-व्यस्त ,विमूढ़ बेबस ,
पर्वतों के बीच विस्तृत शिला पर आसीन !
स्वयं को संयत किये मूँदे नयन !
अभ्यास वश अनयास ही
शिव हुये समाधि-विलीन !
*